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मजूर और मालिक
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धूप ईश्वरकी है और सबकी है। हवा ईश्वरकी है और सबकी है । भूमि ईश्वरकी है और सबकी है । द्रव्य ईश्वरका है और सबका है । जो वस्तु सबकी है वह सबको मिले, इसके सुभीते के लिये हम चाहें तो किसीको राजा मान लेंगे, किसीको मंत्री, किसीको महाजन, किसीको चौकीदार, किसीको किसान, किसीको मेहनती । यह सब तो हमारे अपने बनाये हुए ओहदे ( भेद ) हैं और वे इसीलिए हैं कि सबकी चीज़ सबको पहुँचे । इन ओहदोंपर बैठे हुए लोग अगर सबकी चीज़को सब तक पहुँचाने में मदद नहीं देते हैं, अपने स्वार्थ पैदा करके उन्हें बीच-बीच में अटका कर रोक लेते हैं, तो यह चोरी है, ईश्वरकी अनामत में खयानत है और पाप है ।
प्रश्न - जो चीज़ सबकी है, उसे सबके पास पहुँचाने के लिये आपने ऊपर राजा और मंत्रीकी बात जो कही, क्या इसका यह मतलब है कि समाजकी समस्त सम्पत्तिका वितरण कार्य स्टेटके हाथमें रहे और उसके उत्पादकों या उत्पादनमें सहायक होनेवालोंका कोई अधिकार उसपर न रहे ?
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उत्तर—नहीं, यह मतलब नहीं है । किसी वस्तुका उत्पादक उसके उत्पादनमें श्रम तो अपनी ओरसे डालता है, परंतु, साधन पहले से मौजूद पाता है । इसका मतलब यह है कि वह वस्तुका पूर्ण और एक मात्र स्वत्वाधिकारी नहीं है । लेकिन स्टेटको उसका स्वत्वाधिकारी मानना फिर अन्ततः कुछेक व्यक्तियों के समूहको स्वयं उत्पादककी अपेक्षा अधिक स्वत्वाधिकारी मान लेना है । स्टेट हर अवस्था में ईश्वरकी प्रतिनिधि नहीं है । वह सच्ची जनताकी प्रतिनिधि विरल ही कभी होती है । फिर स्टेट अपने आपमें व्यक्तियों से भिन्न कोई सत्ता नहीं है । स्टेट अगर किसीपर अपना अधिकार रख सकती है तो किसी व्यक्तिहीकी मार्फत । इस लिहाजसे माध्यमके ( =Distributing agency ) तौरपर चाहे स्टेटसे काम ले लिया जावे, और तदनुकूल उसके अधिकार भी मान लिये जावें, पर उससे अधिक अपने आपमें ही उन स्वत्वोंको स्वीकारा नहीं जा सकता । जैसे समझिये पंचायत । पंचायतका मतलब है कि वह प्रधानतः परस्परके अधिकारों को झगड़ने नहीं देती, उन सबको मिलाए रहती है । ऐसे ही स्टेट । अगर व्यक्तिगत विकारकी भावना सीमाका अतिक्रमण कर जायगी तो स्टेट उसे रोक देगी । सीमाका अतिक्रमण नहीं होगा तो स्टेट भी निष्क्रिय रहेगी । अर्थात् स्टेट