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प्रस्तुत प्रश्न
ईश्वरीय न्याय है कि मनुष्य पसीनेकी कमाई रोटी खायगा । जो पसीना बहाता है उसकी रोटी नहीं छीनी जा सकेगी। इस न्यायमें जो बाधा है वह टूटेगी। कोई अर्थ-शास्त्र अगर उस अन्यायका पोषण करे, तो उसे गलत ठहराना होगा। ___ 'सबको उनकी आवश्यकताके अनुसार और सबसे उनकी सामर्थ्य के अनुसार' नियम यह होना चाहिए ।
पेट सबके है। अब किसी में बद्धि अधिक है, किसी में कम । जिसके बद्धि अधिक है, उसकी समाजके निकट उपयोगिता भी अधिक हो सकती है। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि वह पाँच सौ आदमियोंके लायक रोटी ( = वेतन ) अथवा धन पानेकी हविस रक्खे । जैसे औरोंके एक पेट है, वैसे ही उसके भी एक ही पेट है । समाजका संगठन ऐसा होना होगा कि बुद्धिशाली आदमीको भी जरूरतसे अधिक खाना बटोरनेको न मिले । नहीं तो, वह बुद्धिशाली आदमी अपनेको बिगाड़ बैठेगा । मिले उसे उसकी आवश्यकताके अनुसार, फिर भी उसकी बुद्धिका उपयोग पूराका पूरा समाजके लिए हो जाना चाहिए।
'सबको जरूरतके मुताबिक और सबसे क्षमताके अनुसार' यह सूत्र हमारे सामाजिक संघटनमें चरितार्थ हो निकले, उस ओर हमको बढ़ना है। जो ( अर्थ-शास्त्रका ) तर्क इससे उल्टी ओर खींचता है वह पूँजीका तर्क है, और स्वार्थका तर्क है । और उसको लाँघ जाना हमारा फर्ज होता है।
आज भी तो आप देखते हैं कि सरकारकी ओरसे मजूरीकी एक हद बनी रहती है । उससे कम मजूरी नहीं दी जा सकती । अर्थात् आज भी आदमीके श्रमको एकदम 'सप्लाइ' और 'डिमांड' के सिद्धान्तके आधीन नहीं रहने दिया गया है। इसके यह अर्थ नहीं है कि 'सप्लाइ' और 'डिमांड ' वाले मंतव्यमें कोई सचाई नहीं है । अभिप्राय यही है कि मानवी सचाई उससे बड़ी है और वह किसी अर्थशास्त्रकी — थियरी' पर समाप्त नहीं है।
प्रश्न-पानी और हवा उस मात्रामें मौजूद हैं कि हमारी आवश्यकताओंसे भी ज्यादा । इसलिये, उनके बटवारे तथा अधिकारका प्रश्न भी नहीं उठता। वह प्रश्न तो केवल उन चीजोंके प्रति उठता है जो इतनी सीमित हैं कि सब जन-समाजके लिये काफ़ी हो भी सकती हैं और नहीं भी। ओर इसलिये हमारी आवश्यकताएँ हवा