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प्रश्न - कर्म-फलको बिल्कुल अपने अधीन नहीं भी समझा जा सके, तो भी अपने श्रम और युक्तिके बलपर कुछ न कुछ उसे अधीन जरूर ही समझना होता है और उसे ऐसा बनानेहीके लिये श्रम होता है । नहीं तो क्यों और किसके लिये चेष्टा की जाय ? तो पूछना यही था कि मजदूर भी अपनी मज़दूरीके प्रति न्याय प्राप्त करने के लिये उस अधर्मी मालिकके साथ व्यवहार-रूप में असहयोग किस प्रकार करे ?
प्रस्तुत प्रश्न
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उत्तर—व्यवहार-रूप में कोई क्या करे, यह उसकी स्थिति और उसकी शक्तिपर निर्भर करता है । लेकिन, जो मजदूर है उसको यह समझ लेना चाहिये कि जन-शक्ति धन-शक्ति से हीन नहीं है । वह सदा ही उससे प्रबल है । धनमें यदि शक्ति है, तो इसी कारण कि उससे जन-शक्ति भी बहुत कुछ हाथमें आ जाती है | अगर जन-शक्ति स्वाधीन -चंता हो जाये तो पूंजी और परिश्रमके संघर्ष का सवाल भी बहुत कुछ हल हो जाय । क्यों मजदूर यह बर्दाश्त करते हैं कि पशुओं की भाँति उनसे व्यवहार हो ? उनकी इस झूटी सहनशक्ति में ही रोग कीटाणु हैं। क्या वे मनुष्य नहीं हैं ? पहली आवश्यकता तो यह है कि वे मनुष्य बनें । मानवोचित व्यवहार करें और वैसा ही व्यवहार स्वीकार्य करें । अपना कर्त्तव्य पालन करने के रास्ते अपने अधिकारों के अधिकारी बने । उनके ऐसा बनने के बाद पूँजीपतियों में यदि कुछ दुर्व्यवहारकी लत शेष भी रही होगी तो जाग्रत लोकमत उससे मुलझ लेगा । मजूर लोग यह क्यों नहीं अनुभव करते कि लोकमतकी शक्ति बड़ी होती है और उसके द्वारा शासन पद्धति तक बदली जा सकती है ? वे तो सदा ही संख्या में अधिक होते हैं, तब उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि लोकमत पूंजी - पति से अधिक श्रम पति के निकट और वश में होता है । ऐसा वे समझ जायें, तब फिर पूंजी की ( = Capital की ) ओरसे श्रम के प्रति ( = Labour के प्रति ) नासमझीका व्यवहार संभव नहीं रहेगा ।
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प्रश्न - मजदूर जो मजदूरी पाते हैं वह कम है या अधिक, इसका निर्णय तो उन जरूरतोंके ख्यालसे हो सकता है जिनका अनुभव वे स्वयं करते हैं । किन्तु वह मजदूरी श्रमके अनुसार उनका ठीक पारिश्रमिक है कि नहीं, इसका निर्णय वे कैसे करें ?