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प्रस्तुत प्रश्न
नहीं कर सकेगा तो उसकी धनाढ्यता खतरे में है, यह उसे पक्की तौरपर समझ लेना चाहिए | क्योंकि भूख तो भूखी नहीं रहेगी और फिर एक हदसे अधिक भूखी होकर वह धनाढ्यता के गर्वको खर्व्व किए बिना दम न लेगी |
इसलिये अगर मालिक सीधी तरह अपनेको मालिक समझना नहीं छोड़ देगा, तो भाग्य तो सीधे टेढ़े का ध्यान नहीं रखता है । और वह भाग्य फिर टेढ़े रास्तेसे ही भूले हुएको उसकी भूल सुझा देगा ।
प्रश्न- यह तो आपने बतलाया कि मालिक उचित रूपसे क्या समझें और करें। किन्तु, जो ऐसा समझने और करनेके पास नहीं फटकना चाहते, उनका क्या इलाज है ?
उत्तर -- इलाज है उनका दुर्भाग्य । धर्म शास्त्रोंने कर्म-फलको अनिवार्य बतलाया है । पापका फल नर्क और पुण्यका स्वर्ग बताया है । जो जैसा करेगा वैसा भरेगा, इसमें मुझे रंच मात्र संशय नहीं है ।
प्रश्न --- पाप-पुण्यका फल देनेवाले भाग्यके हाथ-पैर भी, मैं समझता हूँ, वर्त्तमानके लोगों में ही रहते हैं क्योंकि उन्हींमें उचित-अनुचितके साथ वरतनेकी सूझ पैदा होती है । तो मैं यह पूछता हूँ कि आपको भी कोई ऐसी बात सूझती है कि इन अधर्मियोंके साथ क्या किया जाय ?
उत्तर - नहीं, पापका फल देनेवाले हम-तुम नहीं । हमारे तुम्हारे द्वारा अगर फल दिया जाता हो, तो वह बात दूसरी है ।
अधर्मीको दंड मिलेगा, यह तो उस अधर्मी व्यक्तिको याद रखना ही चाहिए । पर दंड देनेका जिम्मा कौन है जो अपने ऊपर ले सके ? है कोई जो बिलकुल अधर्मी नहीं है ?
फिर भी, सामाजिक व्यवहार के लिए तरह-तरह के दायित्व समाजद्वारा लोगों पर डाले जाते हैं और उस दायित्व - पूर्ति के वास्ते ज़रूरी अधिकार भी उन्हें दिए जाते हैं | यह नहीं समझना चाहिए कि हम उन दायित्वों को छोड़कर भाग सकते हैं । इसीलिये, समाजमें एक अपराधी है तो एक जज भी है । वह सामाजिक कार्य निबाहे तो जायँगे ही, फिर भी, व्यक्तियों में जहाँतक हो वहाँतक भावना साम्यकी ही रहनी चाहिए । जज कहीं यह न समझ बैठें कि अपराधी पशु