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मजूर और मालिक
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आपको कोई आपत्ति नहीं जान पड़ती है ? किन्तु इसके निराकरणका उपाय भी कभी आपने सोचा है ? सोचा है, तो क्या?
उत्तर-साफ़ तो है कि मैं न अनिच्छापूर्वक मजूर बने , न अनिच्छापूर्वक किसीको मजर बनाऊँ। एक एक करक लोकमत भी ऐसा बनता जायगा और पयाप्त लोकमत बनने के बाद आईन-कानूनसे भी इसके पक्षमें सहायता मिलनी चाहिए। जो गलत है उसको वर्जनीय ठहराकर मैं आजस ही अपना आचरण तदनुकूल चलाना आरंभ कर दूँ , और जिनपर मेरा प्रभाव हो उनको भी उस ओर प्रेरणा दूँ। यह स्पष्ट उपाय है और यह उपाय अमाघ भी है।
प्रश्न-मजूर अपनेको मजूर न समझे और मालिक अपनेको मालिक नहीं। किन्तु फिर भी कोई न कोई काम करनेवाला और कोई न कोई पैसा लगानेवाला तो रहेगा ही और पैसा लगानेवालेको अपने पैसेकी सुरक्षा और वृद्धिके लिये दूसरोंके 'कॉम्पिटीशनका' भी ख्याल करना होगा। तो फिर वह मजूरोंसे अधिकसे अधिक काम लेनेसे कैसे वच सकता है ?
उत्तर - पैसेवाला पैसेको अपना न समझे, कामका पेसा समझे, तब पैसेसे हर हालतमें नफा उठानेकी तृष्णा मंद हो जायगी। अब भी तो स्टेट शिक्षाके मदमें काफी खर्च करता है। क्या उस मदसे पैसके अर्थमें मुनाफा होता है ?
औद्योगिक स्पर्धा में घुटकर व्यावसायिक मनोवृत्ति हो जाने के कारण ही ऐसा जान पड़ता है कि पैमेको हाथसे छोड़नेमें एक ही अर्थ हो सकता है, और वह अर्थ होगा उसपर मुनाफा उठाना । परन्तु, यदि गहरी दृष्टिसे देखें तो यह बात सच है नहीं । आज भी मंदिर, सदाव्रत, धर्मशाला, अस्पताल और अन्य सार्वजनिक संस्थाओंका होना क्या यह साबित नहीं करता है कि पैसा व्याक्तिगत आर्थिक प्रत्याशाके अभावमें भी खर्च हो सकता है ? आप देखेंगे कि बड़ीसे बड़ी इमारतें अगर कहीं हैं तो वे व्यक्तिकी नहीं हैं, वे सार्वजनिक हैं । इसका यही अर्थ होता है कि व्यक्तिके भीतर ही सामाजिक और सार्वजनिक प्रेरणा हैं। उस प्रेरणाको पुष्ट और बलिष्ट किया जाय तो कोई कारण नहीं कि आदमी बिना संकीर्ण प्रतिफलकी भावनाके अपने संरक्षणमें आये हुए रुपयेको खर्च न करे ।
और अगर पैसेपरसे अपने स्वत्वाधिकारकी भावनाको धनाढय व्यक्ति कम