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स्त्री और पुरुष
११३ एकाकी होकर जीवन-यापन करती है, कहा जा सकता है कि वह पुरुपोचित गुणोंसे भी काम लेती है।
क्या आप यह समझते हैं कि पुरुष एक मिट्टीका बनता है और स्त्री दूसरी मिट्टीकी बनाई जाती है ? नहीं, दोनोंके गुण बीज-रूपसे दोनों में विद्यमान होते हैं । प्राधान्य जिनका होता है, वही फिर अन्ततः स्व-भाव-निर्णायक हो जाते हैं ।
प्रश्न-निजी विशेषताओंसे स्त्री स्त्री और पुरुष पुरुष है,-यानी स्त्री कोमलतासे और पुरुष संघर्पोपयुक्त कठोरतासे,—तो क्या स्त्रीका आदर्श अधिकसे अधिक कोमल और पुरुषका अधिकसे अधिक वैसा ही कठोर होना नहीं है ?
उत्तर–सो कैसे हो सकता है ? आदर्श अर्धनारीश्वर है । आशय यह नहीं कि व्यक्ति संकर हो जावे । नपुंसक भी स्त्री अथवा पुरुष नहीं होता। पर नपुंसक आदर्श नहीं है । आदर्श निषेधात्मक नहीं, समग्रात्मक होता है । स्त्रीत्व
और पौरुषका जीवित समन्वय आदर्श-रूप है। वहाँ होगी व्यक्तित्वकी पूर्णता । सभी गुण जहाँ पूर्णताको प्राप्त होते हैं,--शौर्य भी और मार्दव भी, तेज भी
और आजव भी,-वह निर्गुणताकी स्थिति सिद्धि है । 'निर्गुण'से आशय गुणहीनता नहीं, पर गुणोंकी यथावस्थितता है । जैसे सब रंग मिलकर निरंग सफेद हो जाते हैं। धवलता वह रंगहीनता है जो प्रकाशकी भाँति केवल उज्ज्वल है
और जिसमें सब रंग समाहित हैं । __ प्रश्न-क्या इसका यही अर्थ हुआ कि पूर्ण व्यक्तित्वको पहँच कर स्त्री स्त्री नहीं रहेगी और पुरुष पुरुष नहीं, बल्कि दोनों एक ही समान किसी तीसरी अवस्थामं होंगे? किन्तु फिर उस समय जीवनके कार्य व्यापारमें भी क्या उन स्त्री-पुरुषका भेद रहना आवश्यक होगा?
उत्तर- हाँ, बहुत कुछ यह अर्थ हुआ। बहुत कुछ हुआ, पूरी तरह नहीं । जिस अंशमें स्त्री-पुरुष अपनी अपनी मर्यादाओंसे विकास क्रमसे ऊँचे उठते जायेंगे, वैसे ही वैसे उनमें कर्त्तव्य-भेदकी मर्यादाएँ कम होती जायँगी । मसलन संन्यास अवस्थामें गृहस्थीकी मर्यादा क्या स्त्रीपर लागू होती है ?
प्रश्न-तो फिर निर्गुणावस्थाके प्राप्त होनेकी भी कोई संभावना है?