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१७-अर्थ और परमार्थ
प्रश्न-उस आदर्शके भजन और ध्यानकी बात आज एकदम कितनोंको सूझती है,--यह तो मैं नहीं कह सकता। किन्तु, मुख्य प्रश्न क्या आजकलके व्यक्तियोंके सामने केवल रोटीके पाने और उसके साझे बाँटेका नहीं है ? उस समस्याका निर्णय क्योंकर हो सकता है?
उत्तर-उक्ति है 'कोउ काऊमें मगन कोउ काऊमें मगन'। यह बात ममताके विषयमें ही नहीं, उससे उधर भी सच है । किसीकी समस्या रोटीकी है, तो दुसरेकी समस्या रोटीसे आगे बढकर चुपड़ी रोटीकी है। तीसरेकी मोटरकी, चौथेकी मकानकी, पाँचवेंकी कर्ज भुगतानकी, वगैरह । हम एकदम सीधे तौरपर जब यह कह देते हैं कि समाजकी समस्या रोटीकी है, तब अपने साथ पूरा न्याय नहीं करते । असलमें समस्या समस्या है और अगर वह सचमुच परेशान कर रही है, तो उस समस्याको जीवित समस्या, अर्थात् जीवनकी समस्या, कहना चाहिए । ___शब्द चल पड़े हैं: आर्थिक समस्या, राजनीतिक समस्या । उन शब्दोंको व्यवहारमें लाना गलत नहीं है । लोकन, कहीं उनका मतलब यह न समझ लिया जाय कि जीवनमें वैसे खाने बने हुए हैं। अध्यात्मका एक खाना, समाजका दूसरा खाना, अर्थका तीसरा खाना ! न न, ऐसा बिल्कुल नहीं है । समूचा जीवन एक तत्त्व है । प्रश्न दृष्टिकोणका है । अगर हम अर्थकी ओरसे मूल समस्याका ग्रहण करते हैं तो वह आर्थिक जान पड़ती है, नीतिकी ओरसे उसे पाना और सुलझाना चाहते हैं तो वह नैतिक जान पड़ती है । ___ इसीलिये मेरा आग्रह है कि हम जो भी उलझन है, उसको किसी शास्त्रके ( अर्थशास्त्र अथवा नीतिशास्त्रके ) भरोसे न टाल दें। वह शास्त्रोंसे खुलनेवाली नहीं । पहली जरूरी बात यह है कि वह समस्या हमारे निकट सच्ची बने, यानी जीवनमें घुली-मिली दिखाई दे । इससे पहले उसको सुलझानेका कोई प्रयत्न सच्चा नहीं हो सकता । जब वह जीवनके साथ एकम-एक हो जायगी तब हम उसे चारों ओरसे ही सुलझानेकी चेष्टामें लगेंगे। पूरे जीवनके जोरसे हम