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प्रस्तुत प्रश्न
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उत्तर-जबतक देह है तबतक गुणका बंधन भी है । शुद्ध निर्गुणावस्था देहातीत है।
प्रश्न-क्या आपका विश्वास है कि मानव-जीवनका विकास निर्गुणावस्थाकी ओर है ?
उत्तर-हाँ।
प्रश्न-किन्तु, क्या आप नहीं मानेंगे कि जहाँ एक ओर भौतिक जटिलता बढ़ रही है, वहाँ उसीके साथ साथ हमारे संस्कार भी जटिल और बहुमुखी होते जा रहे हैं ?
उत्तर - यह भी मानता हूँ।
प्रश्न-तो फिर उन संस्कारों और भावोंके साथ साथ आप कैसे कहेंगे कि हम निर्गुणावस्थाकी ओर जा रहे हैं?
उत्तर-जटिलता अंतमें अपनेको खा लेगी और गुणोंका परस्पर विरोध नष्ट हो जायगा । वही अवस्था गुणातीत अथवा निर्गुण होगी। जो निगुण, वह निराकार । निराकार अर्थात सर्वव्यापी । इसलिए निर्गुण-निराकारकी स्थितिमें अस्तित्वका नाश नहीं है । वहाँ अस्तित्वकी सर्वात्मकता है। वहाँ बाधा-रूप देह भी नहीं है।
पर ऐसे आदर्शके भजनसे हटकर उसका ब्योरा पानेपर हम क्यों आ तुले हैं ? यह उपादेय नहीं है। प्रश्न-किन्तु निर्गुणावस्थाके भजनसे आपका क्या अर्थ है ? उत्तर- भजन से अर्थ है भजना, ध्यानमें लाना, आदि ।
प्रश्न-तो क्या आप सीधे सादे शब्दोंमें समाजको उसके सब दुःखोंका नुसखा यह कहकर ही दे सकेंगे कि निर्गुणावस्थाका ध्यान करो? क्या यह कहना आपका किसी भी कदर सार्थक हो सकता है ?
उत्तर--नुस्खा अगर कोई हो, तो वह समाजको नहीं दिया जा रहा । समाजके व्यक्तियोंको दिया जा रहा है। ___ व्यक्तिमें ध्यानकी शक्ति है । व्यक्तिमें आदर्शके बिना गति ही नहीं है । निश्चय उस आदर्शका आदर्श-रूप निर्गुण-निराकारमय है । वैसा यदि नहीं है तो आदर्शकी आदर्शता कभी न कभी लुप्त हो जायगी ।