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प्रस्तुत प्रश्न
खोजका परिणाम है | और चूँकि मानव-बुद्धि विकास-शील और परिणमन-शील है, इससे वह मंतव्य बदल भी सकता है ।
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प्रश्न – स्त्री-पुरुष-विषयक मानसिक एवम शारीरिक बलकी विषमता कभी दूर हो जायगी, क्या आप यह विश्वास करते हैं ? उत्तर - मुझे उसकी जरूरत नहीं मालूम होती ।
प्रश्न- तो क्या स्त्रियों में उदारता, प्रतिभा और शारीरिक वलकी वही क्षीणता बनी रहे, ऐसा आप चाहते हैं ?
उत्तर—शारीरिक बलकी न्यूनाधिकता फिर इन गुणों में भी हीनाधिक्य पैदा करती है, ऐसा तो मैं नही मानता । कर्मकी विषमता स्त्री और पुरुषमें कुछ न कुछ रहेगी ही । उनके गुणों में भी तदनुकूल कुछ भेद रहे, इसमें कोई हानि नहीं है। बल्कि ऐसा होना अनिवार्य है ।
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प्रश्न - स्त्री - जगतमें जो एक आंदोलन पुरुषोंके प्रत्येक क्षेत्रमें समकक्ष होनेका चल रहा है, क्या वह वे मानी है ? या कुछ उसमें इट भी है ?
उत्तर- - समकक्षता शाब्दिक अर्थ में खींचने पर बेमानी हो जाती है । यों, स्त्री पुरुषसे हीन है, यह बात तो गलत है ही । इस हीनता की भावनाको पुरुषों और स्त्रियों दोनों चित्तमेंसे निकालने में जहाँ तक यह आंदोलन सहायक होता है वहाँ तक तो कोई भी बुराई की बात नहीं है । उससे आगे बढ़ने पर मेलकी जगह तनाव बढ़ता है और उस जगह पहुँचकर उस आंदोलनका समर्थन नहीं हो सकता ।
प्रश्न - पुरुषोंकी मनोवृत्ति
स्त्रियोंसे काम निकालनेकी ( Exploitation की ) रही है, क्या साधारणतया ऐसा कहा जा सकता है ?
साधारणतया कह दीजिए, लेकिन यह कहने की इजाजत में इसी लिए ले सकता हूँ कि मैं स्वयं पुरुष हूँ । स्त्री होकर मुझे यह कहना शोभा नहीं देगा | स्त्री होकर पुरुषको दोष देना मुझे अपने लिए लाभकारी न होगा । मुझे आलोचक बनना है, तो मैं अपना ही आलोचक बनूँ । अतः पुरुष होने के नाते ही मैं यह कहने को तैयार हूँ कि पुरुषने स्त्रीके प्रति दुर्व्यवहार किया है और उसे इसका प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
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