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१६-स्त्री और पुरुष प्रश्न--स्त्री और पुरुष दोनों ही संसारके किसी भी कार्य-व्यवहारके लिए वरावर उपयुक्त हो सकते हैं, क्या आप ऐसा नहीं मानते हैं ?
उत्तर-नहीं । पुरुष माता नहीं बन सकता है । इसीके अनुकूल उन दोनोकी सामाजिक हैसियतोंमें भी विभेद रहेगा । कर्त्तव्योंका अंतर फिर थोड़ाबहुत अधिकारोंमें भी अन्तर डालेगा।
प्रश्न-मातृत्वको छोडकर, क्या कोई दूसरा उत्तरदायित्व स्त्रीका ऐसा नहीं रह जाता, जो पुरुषका नहीं है?
उत्तर -मातृत्व स्त्रीत्वका ही एक रूप है । माता न भी बन, तो भी स्त्री स्त्री है । एसी हालतमें भी पुरुषसे तो वह भिन्न ही है । तब ( माता अथवा अमाता ) स्त्री और पुरुपके स्थान में कुछ भेद होना असंगत नहीं ।
प्रश्न-विचारोंकी उदारता और कला और आविष्कारकी प्रतिभा स्त्रियोंकी अपेक्षा पुरुपोंमें अधिक रहती है, क्या आप ऐसा मानते हैं ? यदि मानते हैं, तो इसका कारण क्या हो सकता है ?
उत्तर--मान सकता हूँ । कारण, स्त्रीकी लगन स्थूलकी ओर विशेष रहती है । सूक्ष्मकी लगन प्रतिभा कहलाती है । लेकिन ये सब हमारे ही तो शब्द हैं। यह न समझना चाहिए कि स्थूल कम उपयोगी है, अथवा कि गैरजरूरी है । मनुष्य ऊँची कल्पना दौड़ाता है, सो तभी जब उसे स्थूल चिन्ताओंसे स्त्रीकी सेवाके आधारपर अपेक्षाकृत छुट्टी मिल जाती है।
प्रश्न-किन्तु, पुरुप जो कि परिवारका संरक्षक होता है, क्या कम स्थूल चिंताओंसे ग्रस्त रहता आया है, क्या संघर्पकी चोट सीधे वही नहीं लेता है ?
उत्तर-संघर्षकी चोट तो लेता है, फिर भी यह बात कि आज क्या दाल बने और आज क्या साग बने, इस ओरसे वह बहुत कुछ छूटा हुआ रहता है । नित्य प्रतिकी यह छाटी छोटी बातें स्त्री अपने ऊपर ओढ़ लेती है, तभी पुरुष बड़ी बातोंमें मोर्चा लेनेमें समर्थ होता है ।