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प्रस्तुत प्रश्न
दूंगा । स्टेट-यन्त्र टूट जाय तो आज तो उससे अलाभ ही होनेवाला है । लेकिन, मैंने कहा कि समाजकी वैसी अवस्था की भी मैं कल्पना कर सकता हूँ जब स्टेटका यन्त्र अपना सब लाभ दे चुका होगा और जब वह अपने आपमें नहीं, बल्कि अपने फलक रूपमें, यानी इतिहासमें ही, वह जिंदा रहेगा। आजकी कली कल फूल हो जाती है, वह फूल फिर परसा फल हो जाता है । फलकी इच्छासे मैं अधीर होकर कलीसे नाराज नहीं हो सकता ।-फलकी तृष्णामें कलीको नोंचना अपनेको फलसे वंचित कर लेना है। अब पूछा जा सकता है कि उचित क्या है ? कली उचित है, कि फूल उचित है, कि फल उचित है ? देखा जा सकता है कि असलमें उचित तो विकसित होते रहना है । कोई अवस्था अपने आपमें उचित अथवा अनुचित नहीं है ।
इसलिए, जब औचित्यका प्रश्न है तब उचित उसीको टहराना होगा जो वर्तमान अवस्थाको विकासकी ओर ले जाए । इसीलिए, मैं कहता हूँ कि स्टेट नामक संस्था में बहुत कुछ है जो आवश्यक है, अर्थात् टीक आजके दिन उससे छट्टी नहीं पाई जा सकती। फिर भी, जो कुछ आज है, उस सबके साथ मेरा निरपवाद सहयोग आवश्यक रूपमें आनेवाले कलके प्रति मरी अनास्था अर्थात् आदश-हीनताका द्योतक होगा। अगर कलपर मैं विश्वास न रकवू, और आजके आजको ही बस मान बैटू, तब तो जीवनका अर्थ ही लुप्त हो जायगा। जीवन में अर्थ तभी तक शेप है जब तक हम वर्तमानको सम्पूर्ण नहीं मानत और भविष्यके प्रति भी अपना नाता समझते हैं । इसीमें यह गर्भित है कि वर्तमानके दोपोंस हमें असहयोग करना होगा जिससे कि उसकी भविष्योन्मुख प्रगतिमें हमारा उतना ही कटिबद्ध सहयोग हो सके।