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सन्तति
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न उसके परिणामको नष्ट कर सकते हैं । हाँ, उस वृत्तिको अधिक चरितार्थताके मार्गपर डाला जा सकता है, और उसके फलको भी उन्नत किया जा सकता है । सृजनशील कला (Creative Art) वासनाका सात्त्विकरूप (Sublimated passion ) है । क्या यह कहना गलत होगा कि जिसको प्रतिभा कहा जाता. है, वह भी उसी मूल ( काम- ) शक्तिका परिवर्तित ( उन्नत ) प्रकार है ।
प्रश्न-किन्तु, प्रश्न है कि अच्छेसे अच्छे संसारकी कल्पना करते हुए भी आप मनुष्यको इस वातका अधिकारी कैसे मानते हैं कि वह अपनी बहकी इच्छा-पूर्तिके लिए, वह इच्छा भले ही वंश चलानेकी हो,-संततिको जन्म दे? दूसरे, जब संसार रहने लायक नहीं है, तब क्या यह विवेक-युक्त नहीं कहा जा सकता कि वह संततिको जन्म न दे ?
उत्तर–कहा जा सकता है । लेकिन, इसका तो यही मतलब हुआ कि क्या ब्रह्मचर्यका उपदेश नहीं दिया जा सकता ? और कि क्या विषय-भोगोंके दुखद परिणामोंकी याद दिलाकर उस ब्रह्मचर्यके उपदेशका पोषण नहीं किया जा सकता ? मैं समझता हूँ कि यह सब कुछ किया जा सकता है, किया जाता है, और करना उचित है।
किन्तु, प्रश्न यह शेष रहता है कि संभोगके परिणामोंको ( जिनको आप बुरा करार देते हैं ) ऊपरके प्रकारके उपदेश-आदेश आदिसे आगे और अलग क्या और भी उपायोसे रोकनेकी चेष्टा की जा सकती है, और क्या वह चेष्टा उचित है ?
तो यहाँ मेरा उत्तर है, 'नहीं'। दुनिया पहलेहीसे जीनेके लिए सुखकर जगह नहीं है, इसलिए, किस अधिकारसे हम एक नवीन प्राणीको यहाँ पैदा करके उसे जीवनके दुख उठानेके लिए लाचार करें ? और वह पैदा इसीलिए हो न कि एक दिन मरे ! तो मैं कहता हूँ, कि यह और भी बड़ा कारण है कि हम विषय-भोगोंसे निवृत्ति पाएँ ।
लेकिन, इस तर्कके सहारे काम-वासनासे निवृत्ति कहाँ प्राप्त हो सकी है ? क्या वैसी निवृत्ति अब तक कभी कहीं हो पाई है ? अतः क्या हम प्रजननको