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सन्तति
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पुरुष विषय-प्रसंगके अयोग्य ही हो जाता है । ऐसी स्थिति समाजके लिए लाभकर ही होगी, क्योंकि उस व्यक्तिका प्रेम स्थूल संभोगमें तनिक भी तृप्ति न पाएगा और इसलिए समाज-हितके प्रति वह प्रेम अधिकाधिक विवश भावसे बहेगा।
प्रश्न-मानव-विकासके उपर्युक्त स्थिति तक पहुँचनेका विचार करके, मानव-समाजके किसी समय सर्वथा ही लोप हो जानेकी संभावना है, क्या यह ठीक है?
उत्तर-संभावनाको क्यों हम छोटी करें । उस संभावनासे डरनेकी जरूरत नहीं है । महान् वैज्ञानिक कहते हैं कि जाने कितने लाख वर्ष बाद यह हमारी पृथ्वी ही न रहेगी। इसपरका जीवन ( प्राणी-जीवन ) तो उससे पहले ही निबट चुकेगा। अगर ऐसा होनेवाला हो, तो क्या उससे आजके हम मानव-प्राणी डरे ? कौन चीज़ नाशवान् नहीं है ? इसलिए किसीके समाप्त होनेकी आशंका, - चाहे फिर वह हमारा समाज ही हो, चाहे हमारा कोई मान्य देवता हो, हमें क्यों विचलित करे ?
और मुक्तिमें मृत्यु गर्भित है। मोक्षकी बौद्ध-संज्ञा निर्वाण है । समाज जिस क्षण लुप्त होगा, उसी क्षण वह अपनी सार्थकता पा चुका होगा, यह मान लेने में हमें क्यों कुछ कष्ट होना चाहिए ?
प्रश्न-खैर, दुनिया न रहे न सही, किन्तु क्या सुख-दुखका विचार करते हुए संततिको जन्म देकर मनुष्य एक निरा पाप अथवा अन्याय ही नहीं करता है ? उसे अपनी ऐन्द्रियिक अभिव्यक्तिका हक भले ही हासिल हो, किन्तु, दुनियाके प्रपंचमें डालनेके लिए जीवोंको जन्म देनेका उसको क्या अधिकार है ? और इस तरह क्या हम नहीं कह सकते कि संतति न उत्पन्न करनेके लिए भी वह ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करे, और ब्रह्मचर्य व्रतका पालन यदि न भी करे, तो कमसे कम संतति-उत्पादन न करे ?
उत्तर-संतति उत्पन्न न करने की इच्छा मौलिक नहीं है, वह प्रतिक्रिया है। आदमी अपनी संततिमें जीता है और कोई आदमी मरना नहीं चाहता। यानी मनुष्य-मात्र संततिद्वारा मानो अपने जीवनको सदा कायम रखना चाहता है ।
संतति-उत्पादन पाप है, यह शायद इस लिहाज़से कहा या समझा जा