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सन्तति
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भाग्य ही अपनेको निष्पन्न कर रहा है या विधि अपनी लीला दिखा रही है । मूल सत्ता अवैयक्तिक है |
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किन्तु, जब हम व्यक्तिकी परिभाषा में विचार करते हैं, तो ' होना करना हो जाता है। अगर हम अपनेको मात्र भवितव्यताका आखेट न मानना चाहें, तो कहना उचित होगा कि जो कुछ हो रहा है, वह 'हो' ही नहीं रहा है, बल्कि हम उसमें बहुत-कुछ कर भी रहे हैं । Being, thus, becomes doing करना ' ' होने की परिभाषा है । इस तरह दीख पड़ेगा कि प्रत्येक व्यापार दोहरी प्रेरणा से संभव होता है । एक अन्दरकी स्फूर्ति, दूसरी बाहरकी माँग । जो कर्म अन्तःप्रेरणा के दृष्टिकोण से मात्र अभिव्यक्ति प्रतीत होगा, वही बाहरी माँ के लिहाज़ से उपयोगी, प्रयोजनीय, एवं कर्त्तव्य कर्म कहलायेगा । इस भाँति संतति उत्पादन अपनी अन्तस्थ वृत्तियों की अपेक्षा स्वाभिव्यक्ति ही है, फिर भी, सामाजिक कर्तव्यकी भावनाको वहाँ पूरे तौरपर रहने की गुंजायश है ।
यह सच्ची बात है कि ‘अभिव्यक्ति' शब्दकी अनायासता और 'कर्त्तव्य' शब्दमें व्यापी हुई नियंत्रणकी ध्वनि, ये दोनों परस्पर विरोधी दीख पड़ती हैं। अधिकांश और दूर तक वह विरोध हैं भी सही । फिर भी उन दोनोंके मेल में सिद्धि है | वह मेल संभव है । सहज प्राप्त न हो, किन्तु साध्य इष्ट वही है ।
परिणाम निकला कि प्रत्येक कर्मकी सचाई के दो बाहरी लक्षण हैं । पहला, एक आनंद भाव जो कि इस बातको प्रमाणित करता है कि यह कर्म व्यक्तिके लिए बंधन-रूप न होकर अभिव्यक्ति रूप है दूसरा है हिताहित- विचार अथवा विवेक, कि जिससे प्रमाणित होगा कि वह कर्म मन-माना नहीं है, किन्तु सुविचारित और लक्ष्ययुक्त है ।
संयम जहाँ आनन्दका नाशक है, वहीं मानो वह अपने मूलको खाता है । और जहाँ आनन्द-भाव विवेकहीन हो चलता है, वहाँ मानो वह अपनी निष्कलुपताको खो देता है । मैं यह मानता हूँ कि कर्तव्य - भावना को सुला देना प्रेमके जागरण के लिए आवश्यक नहीं है ।
प्रेम अंधा है, मैं इस उक्ति से असहमत नहीं हूँ । जो बस्त्र चामकी आँख जितनी दूर तक देखता है, वह सचमुच प्रेम नहीं है । प्रेमको अंधा इसी अर्थ में स्वीकार करना मैं चाहता हूँ कि वह वह देखता है जो आँख नहीं देख सकती है । वह
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