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प्रस्तुत प्रश्न
सकता है कि अब भी काफी आदमी हैं जिनको भर-पेट खाना नहीं मिलता और जो मानव-समाजके लिए रोग-रूप हैं । जब अब भी मनुष्योंकी पर्याप्तते अधिक संख्या है, तो संतति-उत्पादनद्वारा उसमें और बढ़वारी करना कौन बुद्धिमत्ता है ?
तो जिस तलका यह तर्क है, संतति-उत्पादनके प्रश्नका उस तलपर विवेचन समीचीन न होगा। हम मनुष्य-जातिका गणितके सिद्धान्तोंसे संचालन नहीं कर सकते । आंकिक सिद्धान्तोंसे मानव-कल्याणका निर्माण न होगा । यह कह कर कि बूढ़ेोसे हमें काफी प्रतिफल प्राप्त नहीं होता है, इसलिए उन बूढोंको एक साथ यम-घाटसे पार उतार दिया जाय,-संभव है कि प्रयोजनको ( Utility को ) ध्यानमें रखकर कोई शास्त्र गंभीरतासे इसी प्रकारका उपाय सुझाने चले । पर जिस रोज ऐसी बात आचरणीय ठहराई जायगी वह दिन प्रलयका भी होगा। पर मैं जानता हूँ, वह दिन कभी न होगा। क्यों कि विकास अवश्यंभावी है
और मनुष्य पशु नहीं हो सकता । और भविष्य उजालेका नाम है। ___ इसलिए, संतति-उत्पादन यदि सामाजिक दृष्टिसे अनुपादेय भी हो जावे, तो भी हम उसको कृत्रिम साधनोसे रोककर लाभ नहीं उठा सकेंगे । संयम ही संतति-निरोधका प्रथम और अंतिम कारगर उपाय है । ___ भोग भोगकर और फिर भी किसी चतुराईसे प्रजननको रोककर लोग अपने पैरों कुल्हाड़ी ही मारेंगे । मनुष्यको एकत्रित भावमें रखनेवाली वस्तु है नैतिकता। कृत्रिम निरोध अनैतिक है। __ लेकिन, प्रकृतिके कामोंके बारेमें हम भ्रममें न रहें । बरसात होती है तो चारों ओर कितनी हरियाली दीखती है ! जाने कितने प्रकारके पौधे धरती फोड़कर अपना सिर ऊपर उठा उठते हैं ! लेकिन, क्या वे सब ही जीते हैं ? अधिकांश उनमें उगते नहीं कि मर भी जाते हैं । कुछ बिरले ही उनमें पुष्ट वृक्ष बननेका अवसर पाते हैं । क्या यहाँ हम यह कहें कि प्रकृतिने उन पौधोंको उगाकर पाप किया जिनको आगे जाकर वृक्ष नहीं बनना था ? यह कहना मेरी समझमें कोई विशेष महत्त्वकी बात न होगी।
तब फिर पाप-पुण्यकी कैसी विवेचना और कैसा समाधान ! कानून बनाकर प्रजनन नहीं रोका जा सकता । जिस हद तक रोका जायगा, उसी अनुपातमें अनाचार भी फैलेगा । हम काम-प्रवृत्तिको कुचल कर नष्ट नहीं कर सकते और