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सन्तति, स्टेट और दाम्पत्य
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ऐसा होना चाहिए जो कि उन्हें एक ही साथ योग्य पुत्र और योग्य नागरिक बनाए जिससे कि पारिवारिकता निवाहनमें नागरिकताका हनन न हो, और सार्वजनिक सेवाके व्यवसायमें गृहस्थ-धर्मका अंत न हो जाय ।
सरकार अपनी लड़ाइयाँ लड़नेके लिए सिपाही चाहती है, माँ-बाप पारिवारिक परिग्रह बढ़ाने के लिए, जैसे भी हो, मोटी कमाई चाहते हैं । शिक्षाका उद्देश्य न लड़ाई में मरना-मारना है और न कमाईको मोटा करने जाना है ।
इसलिए जब जब राष्ट्र अथवा अभिभावक अपनी अर्थ-स्पृहाकी तृप्ति संततिसे चाहें, तब वे शिक्षाके संचालनके अधिकारके अपात्र भी हो जाते हैं। इसीसे तो ऊपर कहा गया है कि अच्छा यह होगा कि नैतिक निष्ठा और ब्राह्मण-वृत्तिके लोग अथवा ऐसी सार्वजनिक संघ संस्थाएँ अपनेको शिक्षाका केन्द्र बना लें। विकार-हीन शिक्षाका मार्ग तो यही मालूम होता है ।
प्रश्न-एक स्वाधीन देशकी, यानी स्टेटकी, सम्मति एक व्यक्तिकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण, अनुभव प्राप्त, मूल्यवान् और माननीय होनी चाहिए,-ऐसी श्रद्धा रख कर यदि व्यक्ति संततिको स्टेटके हाथ सौंप दे, तो क्या अकर्त्तव्यका भागी होगा ?
उत्तर-विवेकपूर्वक अगर वह ऐसा करे तो इसमें कोई अकर्त्तव्य जैसी बात नहीं है।
प्रश्न-पति-पत्नीमें मत-भेद हो तो उस समय उन दोनोंका क्या कर्तव्य होगा? अपने मतका उत्सर्ग अथवा उसपर आग्रह ?
उत्तर- जबर्दस्तकी जीत होगी। प्रश्न--लेकिन क्या जवर्दस्त होनेके लिए अपने अपने मतपर अड़े रहना होगा? यदि ऐसा है तो निर्णय किस प्रकार होगा?
उत्तर-जिससे जो बनेगा करेगा । अहिंसक संकल्प विजयी होगा।
प्रश्न- आखिर पति-पत्नीके मत-भेद जैसी परिस्थितियों में 'करने का अर्थ क्या लिया जाय? सत्याग्रह ? तब तो पग-पगपर सत्याग्रह हुआ करेगा। इसके बजाय क्यों न उनमें से किसी एकके लिये यह नियम बना दिया जाय कि ऐसे समय उसके लिए झुकना ही आवश्यक होगा।