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प्रस्तुत प्रश्न
उत्तर-भ्रम नहीं है । भ्रम वह होता है जो टूटे । लेकिन ईश्वरकी खोज कभी नहीं टूटती । हाँ, जो आस्तिकता टूट जाती है, वह आस्तिकता ही नहीं है। यह भी कहनेमें हर्ज नहीं कि उस आस्तिकताका ईश्वर अनीश्वर है । जो सामान्यतया अ-प्राप्य है, आदर्शकी भावना उसीके प्रति होती है । आदर्श तो अप्राप्य ही है, फिर भी उसके प्रति आराधककी लगन उसे ज्वलंत रखती है, मिथ्या नहीं होने देती । स्वप्न और सत्यमें अंतर आखिर इससे अधिक क्या है कि सत्यक प्रति व्यक्तिका नाता आस्था-स्वीकृतिका है, उससे वह प्रेरणा पाता है, जब कि स्वप्नको व्यक्ति ही स्वयं मिथ्या कहकर निषेध-पूर्वक टाल देता है। इस लिये, व्यकि अगर सच्चा है, तो उसका आदर्श झूठा नहीं ठहराया जा सकता । यो मेरा विश्वास मेरेसे अन्यके निकट भ्रम है ही । पर मेरा होकर वह विश्वास मेरे लिये भ्रम नहीं, प्रत्युत धर्म है।
प्रश्न--किन्तु देखा जाता है कि कल जिसे हम प्राप्य बनाये थे, आज वह प्राप्त हो जाता है और प्राप्य कुछ और बन जाता है, मानो वह आगे सरक जाता है । इस प्रकार, हमारे आदर्शमें भी विकास
और परिवर्तन हुआ ही करता है। वह न एक रहा है, न रह सकता है और केवल इसीलिए अप्राप्य है। तो क्या ध्येय ईश्वर भी वास्तवमै उसी प्रकार हमारे जीवन-विकासके साथ साथ बिम्ब प्रतिविम्ब-रूपसे विकासशील और परिवर्तनशील नहीं है ?
उत्तर --ज़रूर । ईश्वरकी धारणाओंमें बराबर विकाम होता जा रहा है। वह विकास क्या कभी एक क्षणको भी रुकता है ? जाने-अनजाने स्थूलसे सूक्ष्मकी
ओर हमारी गति है । जंगली आदमीकी ईश्वरसंबंधी धारणा और अत्याधुनिक विज्ञानाचार्यकी तत्संबंधी धारणामें काफी अन्तर प्रतीत होगा। यह दूसरी बात है कि काफ़ी साम्य भी उनमें प्रतीत हो । उसी तरह मैं मानता हूँ कि महा मेधावी पुरुषकी परमात्म-धारणासे आगे भी विकासकी अनंत गुंजाइश है । ईश्वर तो निर्गुण निराकार है, इससे धारणा मात्र उससे ओछी रह जाती है । सहस्र ही नाम ईश्वरके नहीं हैं; वे तो असंख्य हैं । असलमें सब नाम उसीके हैं । मेरा 'मैं-पन' तुम्हारा 'तुम पन' मीठेकी मिठास, नमककी नमकीनी वह है । इसीसे तो कहा जाता है कि ईश्वर बुद्धिका विषय नहीं है, श्रद्धाका विषय है । इसलिए ईश्वरसम्बन्धी हमारी एक मान्यता आज अपर्याप्त हो भी जावे, तो दूसरी कोई