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समाज-विकास और परिवार-संस्था
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लेकिन वयःप्राप्तको कैसे सुधारा जाय, जो अपेक्षाकृत दूसरेकी सम्मतिके प्रति चुनौतीकी भावना रखने लगता है ? तो मैं कहूँ कि असहयोगसे यह काम किया जा सकता है । असहयोग भी एक अनुशासन ही है। और दंडके लिहाजसे भी छोटा नहीं है । परिवार कह सकता है कि परिवारका आश्रय उस व्यक्तिको अनुकुल आचरण न करनेपर प्राप्त न रहेगा । अगर परिवारमें उस व्यक्तिके प्रति प्रेम है और परिवारके प्रति उस आदमीमें आस्था है, तो वह सहज उस आश्रयसे वंचित अपनेको नहीं करेगा।
प्रश्न-परिवारमें यदि किसी मत-भेदसे दो भाग हो जाय, तो क्या बड़े भागको अधिकार है कि वह छोटेको अपने मतानुसार चलानेको अनुशासनका प्रयोग करे ? वह क्यों न उस छोटे भागको अपना अलग एक परिवार बनानेकी स्वाधीनता दे दे?
उत्तर-वैसी स्वाधीनता तो है । अनुशासन भी तभीतक लागू है जबतक कि बड़े भागके अंग बनकर रहनेकी इच्छा छोटे भागमें शेष है । अगर वैसी इच्छा शेषतक नहीं रह गई है, तो दोनों भाग अलग हो ही जायेंगे। कोई अनुशासन तब काम न देगा।
प्रश्न-परिवारके लोग यथाशक्ति काम तो करेंगे ही, किन्तु, आयकी मद सीमित होनेपर, खाने-खर्चनेके लिए कौन-सा सिद्धान्त काम करेगा? वह बरावरीका होगा, अथवा कोई अन्य ?
उत्तर-कोई एक सिद्धान्त कहीं काम नहीं करता। जिस परिवारमें स्वास्थ्य है, वह ऐसी स्थितियोंमें अपनेको निबाह लेना जानेगा। अगर आय कम है तो उसी हिसाबसे छोटे बालकका दूध कम किया जाय जिस हिसाबसे बड़े आदमियोंकी आवश्यकताओंमें कटौती की जाय, ऐसे सिद्धान्तों में कुछ सार नहीं है। देखने में यह साम्य (वाद ) का सिद्धान्त मालूम होगा, लेकिन वैसा नहीं है । इस मामले में एकमें दूसरेके लिए उत्सर्गकी भावना जितना सहज समाधान सुझा सकेगी, उतनी हिसाबबीनी नहीं सुझा सकेगी।
प्रश्न--परिवारकी सम्मिलित संपत्ति से एक व्याक्तिको परिवारसे अतिरिक्तके लिए दान देनेका क्या कोई अधिकार रह सकता है और कहाँ तक ?