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समाज-विकास और परिवार-संस्था
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जायगा उतना वह पैना होगा । जितना फैलता जायगा, उतनी ही उसकी विषमता कम होगी । चारों दिशाएँ जिसकी जागीर हैं ऐसा आदमी सर्वथा अपरिग्रही ही हो सकता है । बटोरनेका आग्रह उसीको है जो मनमें दीन है। कबीर साहबने गाया तो है, 'हाथमें कुंडी बगलमें सोटा, चारों दिमि जागीरीमें'। इस भाँति ' अहं' की भावना व्यापक बनाते जानेसे उसकी धार भी लुप्त होती जायगी और अहंकार तब, यदि होगा भी, तो सात्त्विक होगा । अहंकारसे पूरा छुटकारा तो इस जन्ममें संभव है नहीं। इससे, अपने अहंको समर्पित यानी व्यापक बनाते जाना ही, अहंकारसे मुक्ति पानेकी ओर बढ़ना है ।
प्रश्न--एक परिवारके लोग अलग अलग कमायें-खायें अथवा एक जगह मिलकर ? इन दोनोंमें आप क्या रचित समझते हैं ?
उत्तर-एक परिवार या कि अनेक परिवार, जितने अधिक लोग ऐक्यभावसे इकट्ठे रह सकें, उतना अच्छा है ।
प्रश्न--किन्तु, क्या ऐसा हो सकेगा? क्या व्यक्ति अपने व्यक्तित्वको विल्कुल खो देना गवारा करेगा?
उत्तर-जो अकेला रहकर पुष्ट बनता है, उस व्यक्तित्वमें त्रुटि भी रह जाती है। आखिर व्यक्तित्वका बल इसीमें तो है कि लोग उसकी ओर आकृष्ट हो ? जो एक समुदायका केन्द्र नहीं बन गया है, उस व्यक्तित्वको बलिष्ठ भी नहीं कह सकते।
प्रश्न-जो व्यक्ति मुख्य परिवारसे टूटकर अलग परिवार बसाता है, क्या यह उसकी अनधिकार चेष्टा है ?
उत्तर-अगर किसी जिदमें वह ऐसा करता है, तो जरूर वह चेष्टा अनधिकृत है । अन्यथा तो वृक्षकी पौध या कलम दूर जाकर रोपनेसे और भी अधिक फल लाती है।
प्रश्न-क्या वैसे परिवारिक जीवनमें व्यक्तिकी स्वावलम्बकी शक्तिका ह्रास होनेका खतरा नहीं है ?
उत्तर-जरूरी तौरपर तो वह खतरा नहीं है । जब वैसी बात सामने उपस्थित हो जाय, तब व्यक्ति अपनेको किसी संस्था अथवा परिवारसे अवश्य तोड़ सकता है।