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१५ - समाज विकास और परिवार संस्था
प्रश्न -स्व और परके समन्वय में परिवारिक संस्थाएँ आपके विचारसे वाधक हैं कि सहायक ?
उत्तर - परिवार में कोई व्यक्ति पूरा स्वतंत्र नहीं है । वहाँ ज़रूरी है कि वह अपनी स्वतंत्रताको दूसरोंकी स्वतंत्रता के साथ निबाहे । इस तरह परिवार व्यक्ति में स्व-पर-समन्वयकी आवश्यकताका बोध जगाने में सहायक होता है ।
और परिवार आरंभ भी कैसे होता है ? लड़के लड़की युवा होनेपर पाते हैं कि वे अपने लिए नहीं रह सकते । एकको दूसरेकी जरूरत हो आती है । चाह हो आती है कि कोई हो जिसके लिए वे रहें, जिसके प्रति वे अपनेको दे डालें | इस अवस्थाके आनेपर विवाह होता है और परिवारका बीज पड़ता है । संतति स्त्री-पुरुष के परस्परार्पणका फल है । इस तरह परिवारके मूल में स्व-पर-संमिलन और सामंजस्यका भाव विद्यमान है ।
पर वह सामंजस्य यदि सजीव है, तो विकास-शील भी है । वह एक जगह आकर ठहर नहीं सकता । उसे बढ़ते रहना चाहिए। अपने कुटुम्बसे आगे वसुधाको भी तो अपना कुटुम्ब बनाना है । इस प्रयास में प्रतीत हो सकता है कि परिवार एक अड़चन बन गया है। अगर परिवार के प्रति वफादारी हमारे सामाजिक, राष्ट्रीय अथवा मानवीय कर्त्तव्य से विरोधी बन जाती हो, तो वह वफादारी निबाहने योग्य नहीं है । व्यवहार में ऐसा विरोध अक्सर उपस्थित होता है, यद्यपि तात्त्विक दृष्टिसे समन्वय सब काल संभव है । जैसे व्यक्ति रहकर भी एक आदमी एकका पिता, किसी अन्यका भाई और किसी तीसरेका पुत्र एक ही साथ रह सकता है और ये तीनों चारों हैसियतें आपस में झगड़ती भी नहीं हैं, वैसे ही और अन्य हैसियतों का भी समन्वय हो सकता है । लेकिन परिवार में जो एककी दूसरेके साथ प्रयोजनजन्य प्रत्याशाएँ बँध जाती हैं, वे विकासमें बाधा भी पहुँचाने लगती हैं। अधिकांश वे बाधा ही पहुँचाती हैं । कुटुम्बवालोंको प्रत्याशा होती है कि बालक बीस बरसका हो गया है सो जैसे हो साठ सत्तर रुपये हर महीने कहींसे लाकर दे । वह अपनी आत्माको मारता