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१४-ध्येय प्रश्न-व्यक्ति जो कुछ भी करता है स्वके लिए ही करता है। स्वको पर एवं शून्यके साथ ठीकसे ठीक तौरपर बिठानेहीमें उसका जीवन और उसीमें उसके जीवनकी कला रहती है। किन्तु तब ईश्वरको माननेकी अनिवार्यता कहाँ आती है ? और क्या उसे माने बिना व्यक्ति जीवनके प्रति सफल कलाकार नहीं बन सकता?
उत्तर-स्व और पर किसमें एक और अभिन्न है ? वही तो ईश्वर है । इस लिए स्व-परके सामंजस्यकी जहाँ सम्पूर्ण सिद्धि है उस स्थितिको मेरे शब्दोमें ईश्वरता कहो । उसे ध्यानमें लाना किसी भी कलाके लिए साधक ही हो सकता है । पर वह कोई हौआ तो नहीं है । उसकी कोई एक परिभाषा नहीं है । जो जिसको माने, वही उसका ईश्वर । असली व निस्संग समर्पण है । कोई उपलक्ष्य उसके लिए काम दे सकता है । क्या जरी है कि ईश्वर शब्द बिना कोई 'स्व' परोन्मुख हो ही न सके ? इस लिए ईश्वर ( शब्द ) बेशक हमारे व्यापारोके लिए संगत संज्ञा नहीं है । वह तो मौनपूर्वक आराधनीय है । मौनपूर्वक । शब्दजालद्वारा नहीं । लेकिन जब कि शब्द जरूरी नहीं है, तब विश्वास तो कलाकारके लिए बिल्कुल ही जरूरी है। वह विश्वास फिर चाहे किसीको भी लेकर हो । उसके बाद यह दूसरी बात है कि जैसे सब नदियाँ समुद्रमें जाती है, वैसे ही सब विश्वास नाना देवी देवताओंकी राहसे ईश्वरमें ही अर्पित होते हैं।
नदी विना समुद्रको जाने बहती रह सकती है कि नहीं? मेरे खयालमें बहती रह सकती है । अपनी चरम स्थिति यानी समुद्र में समाहित होनेका अज्ञान उसके प्रवाहमें बाधा उपस्थित नहीं करता । ऐसा ही कला आदि मानव-व्यापारोंके विषयमें समझना चाहिए।
प्रश्न-व्यक्ति अपने जीवनका कलाकार है । उसको कलाव्यापार स्वके प्रति सुख और आनन्दकी अपेक्षासे प्रेरित करता है. अथवा परके प्रति उपयोगिता और आकर्षणकी आवश्यकतासे ?
उत्तर-शायद पहले भी यह बात आगई है कि मेरा कोई भी काम मेरी दृष्टिसे