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प्रस्तुत प्रश्न
ही निपटारा हो सकता है । संज्ञा दूसरी भी हो सकती है । लेकिन, उसका भाव व्यक्तिसे अतीत होगा, कहनेका आशय इतना ही है । __कोई अच्छा है, कोई बुरा है। कोई पापी है, कोई धर्मात्मा है । लेकिन, मरते सभी हैं । मौत के लिए पापी और धर्मात्मा एक हैं, ---क्या यह कहना झूठ होगा ? लेकिन फिर भी, पापी पापी है, धर्मात्मा धर्मात्मा है । ___ इसी तरह सब ईश्वरमें समाए हुए होकर भी अगर अपनेमें अलग अलग हों तो इसमें कोई अयथार्थता नहीं प्रतीत होगी।
प्रश्न-लेकिन जो जीनेवाले प्राण हैं, उन्हें स्वधर्म और स्वभावहीसे हमेशा जीते रहना है। यदि उनके जीवनका कोई उद्देश्य हुआ, वह कुछ भी हो, तो उद्देश्य प्राप्त होनेपर क्या प्राण निर्जीव हो जायँगे? किन्तु फिर भी हम देखते हैं कि प्राणी एक न एक चीज़के पीछे रहता ही है, क्या आप इस समस्याको सुलझायँगे ?
उत्तर-उद्देश्यका खिंचाव तभी तक है जबतक वह अप्राप्त है। ईश्वर सदा अप्राप्त है, अर्थात् सदा प्राप्त होने को शेष है । ईश्वरको पानका मतलब अपनेको उसमें खोना है । 'पाने' शब्दमें ही पृथकताका बोध है, यह भाषाकी असमर्थता है। हमारी भाषा पृथक-बोधपर ही संभव बनती है । जहाँ वैसा पार्थक्य नहीं, वहाँ द्वित्व न होने के कारण भाषा अथवा कोई भी मानवीय व्यापार संभव नहीं । अतः तद्विषयक चर्चा न हो सकेगी, क्यों कि वहाँ भाषा काम नहीं देगी।
प्रश्न-अपेक्षाकृत जड़से चेतन और चेतनसे और अधिक चेतन एवं सुन्दरकी ओर विकास-क्रम देखते हुए क्या हम नहीं कह सकते कि ध्येय (ईश्वर) केवल मानवके आदर्शीकृत सौन्दर्यका प्रतीक-मात्र है, अलग अथवा वस्तुतः कुछ नहीं है ?
उत्तर -कह सकते हैं । लेकिन तब ईश्वर हमसे बड़ा नहीं, बड़े हुए हम । अगर गलत है, तो वह कथन बस इसी खयालसे गलत हो सकता है कि उसमें मानवका अहंकार मिला हुआ है। नहीं तो तत्त्वतः उसमें गलती नहीं है। मानवमें जो सूक्ष्म तम है,-शुद्धतम है, वह ईश्वरीय है, यह तो बिल्कुल सही बात है।