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१३ - आकांक्षा और आदर्श
प्रश्न -- हम देखते हैं कि आकांक्षा उत्तरोत्तर किसी एक दिशामें प्रगतिशील है, -- जैसे वह बराबर कुछ अधिक और अधिक खोजने में लगी है । वह क्या चीज है ?
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उत्तर—अपनी आकांक्षाका प्राप्य विषय हूँ मैं स्वयं । मैं हूँ आत्मा । आत्मा है एक | एक है ईश्वर | इसलिए मेरी, तुम्हारी, सबकी सब कामना, साधना और चेष्टाका परम इष्ट है परमात्मा और परमात्मस्थिति । शायद यह बात बुद्धिहीन-सी मालूम हो । किन्तु जो मर्मगत आकांक्षा हमारा स्वभाव है, उसको अपने से अलग करके परिभाषा दे सकना संभव नहीं है । और यदि बुद्धि-प्रयोगसे संभव बनाया भी जावे तो उस परिभाषासे प्रश्न और बढ़ ही उठेगे । मैं किस लिए जी रहा हूँ, इसका जवाब अंतमें दो ही रूपों में हो सकेगा : एक यह कि किसीके ( महासत्ता के ) जिलाये मैं जी रहा हूँ । दूसरा यह कि मैं अपने लिए ( अपने को पाने के लिए ) जी रहा हूँ । इसके अतिरिक्त जो भी तीसरी बात कही जायगी, वह काम चलाऊभर होगी, उसमें तथ्य विशेष न होगा ।
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प्रश्न - यदि जीनेवाला ईश्वरके लिए जीता है, तो क्या आप कह सकते हैं कि संसारमें प्रत्येक प्राणी ईश्वरहीको पानेके लिए लालायित होकर हरेक कार्य करता है ? यदि ऐसा है तो पाप और धर्म, आस्तिक और नास्तिककी परिभाषा क्या होगी ?
उत्तर – जानकर ईश्वर के लिए जीना बहुत कठिन है । लेकिन अगर कहूँ कि जो भी हमारा इष्ट है और काम्य है, वह भी अंततः महासत्यका एक रूप ही है, तो इसमें किसीको क्या आपत्ति हो सकेगी ?
कहो ईश्वर कह दो भाग्य, भविष्य, विधाता, विकास । कुछ भी कहो, लेकिन आखिर कुछ तो कहना होगा । सृष्टिका क्या उद्देश्य है ? तमाम जीवनको निरुद्देश्य मानो तब तो सब झगड़ा ही समाप्त है । लेकिन अगर जीवन निरर्थक नहीं है, और उसका उद्देश्य है, तो उस उद्देश्यको क्या कहा जाय ? मेरा तनिक भी आग्रह नहीं है कि ईश्वर, अथवा 'ईश्वर' नामवाची किसी प्रचलित संज्ञासे