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सौन्दर्य
उत्तर-जरूर होती होगी। बच्चेमें जगत्के प्रति अपार विस्मयका जो भाव है, वह क्या कम विमोहक है ? उसी अबोध अनन्य विस्मयकी झलक शिशुके चेहरेपर झलककर हमें क्यों न मोह ले ? वह भाव बीमारीमें मंद हो जाता है, तब उसका सौंदर्य भी हमें कम हुआ लगता है।
प्रश्न-सौंदर्य, माना, अन्तरंगका प्रति-विम्ब है, किन्तु क्या 'मेक अप' जैसी चीजसे उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता? किया जा सकता है तो क्यों और क्या वह उचित है ?
उत्तर-खाली 'मेक अप 'से मेरे ख़यालमें असुन्दरता बढ़ती है । वह 'मेक अप' तो सहायक भी हो सकता है जो किन्हीं विशेष परिस्थितियों के साथ हमारे मनका तादात्म्य बढ़ाये। ___ मान लीजिए कि हम आठवीं शताब्दीके किसी दृश्यकी अवतारणा करना चाहते हैं । तब पृष्ठ-भूमिपर आठवीं शताब्दीकी कल्पनाको रखकर अभिनेताओंका तदनुकूल किया हुआ 'मेक अप' सुन्दर मालूम हो सकता है । लेकिन, मान लीजिए कि अपने नित्य-प्रतिके व्यवहारमें, यानी बीसवीं शताब्दीके बीचमें, उसी चाल-ढाल और बनावटको लेकर वे अभिनेता घूमें तो इससे सुन्दरता बढी हुई नहीं दीखेगी । क्यों कि तब उनको लेकर तादात्म्यका भाव तो उत्पन्न न होगा, केवल विषमताका ( = Dishurmony ) बोध ही खलेगा। _ 'मेक अप' इसलिए वहीं तक ठीक है जहाँ तक वह अपनी जगहपर है। हमारा कपड़े पहिनना, हजामत बनाना, साफ रहना भी क्या 'मेक अप' नहीं है ? लेकिन जबर्दस्ती लुभाने के लिये रंग पोतकर घूमना भी यदि 'मेक अप' में आता हो, तो वह ज्यादती है।
प्रश्न--उदाहरणार्थ आँखांकी सुन्दरताको लें। कभी उनके बड़े होने मैं सौन्दर्य समझा जाता है, कभी उनके विशेष आकारमं और कभी उनकी भावात्मकतामें। आखिर किस बातको सौन्दर्यका माप ( =criterion ) माना जाये ? परिमाणको, आकारको, या भावात्मकताको ? अथवा इन सबका किसी एक और तत्त्वमें समन्वय ढूँढा जा सकता है ? वह क्या है ?
उत्तर-यह प्रश्न तो मैं खुद आपसे करूँ। अगर सौंदर्य देखनेवालेकी