________________
प्रस्तुत प्रश्न
प्रश्न-उपर्युक्त विजली छुआनेके उदाहरणमें यदि साथ ही एक भद्दी शक्लकी लड़कीको भी विजली छुआकर निर्जीव किया जाय, तो क्या तब उस भद्दी और उस सुन्दर लड़कीके रूपमें सौंदर्यके किसी अन्तरका भान न हो सकेगा?
उत्तर -आप देखेंगे कि उचित उम्रपर आकर भद्दी लगनेवाली शक्ल भी बहुत कुछ आकर्षक हो आती है । वह क्यों ? यौवनावस्था जो आकर्षण होता है वह और अवस्थामें क्यों नहीं होता ? मंगोलियन चेहरा हमें शायद ठीक न अँचे, पर क्या इस कारण मंगोलियन जातिमें परस्पर आकर्षण का अभाव अनुभव होता होगा ? ऐसे ही नीग्रो-सौंदर्यकी भी बात समझनी चाहिए । इस सबसे, सौन्दर्य आपेक्षिक है, यह तो मान ही लिया जायगा।
प्रश्न-सौंदर्यकी रेखाएँ भावोंसे निरूपित होती हैं। किन्तु, क्या रेखाएँ ही उन भावोंको प्रदर्शित करने के लिए सफलता पूर्वक नहीं बनाई जा सकती ? चित्रकला और अभिनय क्या इसका प्रमाण नहीं हैं ?
उत्तर-- मुझे मालूम होता है कि सौंदर्य अन्तरंग आकांक्षाका प्रति-बिम्ब है। अपने आपमें वह बिम्ब है और दीखनेवालेकी दृष्टिसे वह ही प्रति-बिम्ब है । मेरे भीतरका भाव, जो भी वह हो, मुझपर बिंबित हुए बिना नहीं रह सकता । वह मेरी झलक ही है मेरा सौंदर्य । अगर वह झलक दूसरेमें कुछ तरंग पैदा कर देती है, तो वही उसके निकट होगी सौन्दर्यानुभूति । ___ अब चाहे रेखाएँ हो, चाहे पत्थरकी मृरत हो, और चाहे ध्वनि अथवा शब्द या अभिनय हों, सभी में यह कसौटी काम दे सकती है। रेखाओं अथवा अन्य उपादानों द्वारा मैं जितना दूसरेके हृदयको तरंगित कर सकता हूँ, उतना ही मैं उन रेखाओं अथवा अन्य उपादानोंको सौंदर्य दे सका हूँ, ऐसा कहा जा सकता है । मेरा मत है कि रेखाएँ ड्राइंगके सहारे नहीं, बल्कि सुंदर बन सकेंगी तो मेरी अपनी अंतरंग आकाक्षाको अभिव्यक्त करने के कारण ही सुन्दर बन सकेंगी। इससे मैं कहूँगा कि सौंदर्य आकाक्षाका प्रतिबिम्ब है ।
प्रश्न- एक नव-जात बच्चे के मुखपर दर्शकको अपनी किसी आकांक्षाका प्रति-बिम्ब तो मिलता हो, किन्तु उस प्रति-बिम्बके पछेि भी क्या कोई अन्तरंग आकांक्षा होती है ?