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प्रस्तुत प्रश्न
उत्सर-बना लो नियम । लेकिन मुकेगा वही जो कमजोर होगा। मान लो, नियम पास हो गया कि स्त्री झुके । अच्छा, नियमके मुताबिक स्त्रीको जिदसे रोक दिया गया। वह रुक गई। लेकिन उसका मुँह तो खट्टा बन ही आया। उसको तो नियमसे नहीं रोका जा सकता न ? उस खट्टे बने मुँहको देखकर पुरुषका चित्त पानी हो गया, या दहल आया । बस, इसपर उसने अपना आग्रह छोड़ दिया । तब उस हालतमें क्या हो ? इसलिए, सच मानिए, कि नियम चाहे एक न हो, विजय अहिंसक संकल्पकी ही होगी। और कोरे अथवा अस्थिर मिजाज़की हार होगी। इसमें स्त्री-पुरुषका सवाल नहीं है ।
प्रश्न--समाज-सेवाके हेतु आश्रित परिवारको कष्ट देनेका हक क्या मनुष्यको हो सकता है ?
उत्तर-हक कर्त्तव्यमसे आता है। यदि कर्त्तव्य-भावनासे किया गया कर्म किसीके लिए थोड़े-बहुत कष्टका कारण होता है, तो क्या बचाव है ? .
प्रश्न-किन्तु, क्या उन आश्रितोंके प्रति उसका कुछ कर्त्तव्य नहीं होता?
उत्तर- किं कर्त्तव्यमकर्त्तव्यं कवयोऽप्यत्र मोहिताः', यह गीताजीका कथन है । तब मैं क्या चीज़ हूँ ?