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सन्तति, स्टेट और दाम्पत्य
कानून इसलिए है कि व्यक्तिको रोके, किन्तु व्यक्ति इसलिए है कि सब कानूनों के ऊपर जो एक कानून है और जिसकी ज्योति उसके भीतर है, उसकी तरफ़ चलता ही चले, किसीके रोके न रुके ।
इस भाँति व्यक्तिकी गति और कानूनकी स्थितिमें टक्कर उपस्थित होती है। किसीको इनमें हारने का अधिकार नहीं है । स्थिति भी आवश्यक है, गति भी आवश्यक है । फिर भी क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है । इसी युद्ध मेंसे जीवन संपन्न होता है।
इसलिय कब क्या हो, इसका जवाब तब और तब ही दिया सकता है;-यानी इसका जवाब जुदा केसमें जुदा होगा और बिना सामने कोई केस हुए वह जवाब न होना ही अच्छा है।
प्रश्न-किन्तु संतनिके दायित्वसे वचने-मात्रके हेतुसे जो लोग उस ओर निश्चेष्ट हो गये हों, क्या स्टेट उन्हें अपराधी समझे और बाध्य करे ऐसा न होनेको ?
उत्तर-कोई कर्म असामाजिकताकी लहर फैलाये, तभी वह स्टेटके लिए विचारणीय बनता है, इससे पहले नहीं । विवाह सामाजिक कर्म है सही, लेकिन विवाह होता तो व्यक्तियोंका है । और पहले कहा जा चुका है कि सरकार वह उतनी ही अधिक सफल है जिसे जितनी कम नियन्त्रणकी आवश्यकता है । इस लिहाजसे इस संबंध सरकारी हस्तक्षेपके मैं विशेष हकमें नहीं हूँ।
प्रश्न - संततिके लालन, पालन और शिक्षणका अधिकार आपके विचारसे माता-पिताकी मर्जीके अनुसार होना चाहिए अथवा उसपर स्टेटका अधिकार होना चाहिए ?
उत्तर-स्टेटकी मर्जीका क्या अर्थ होता है ? 'स्टेट' शब्दको हम ऐसे व्यवहारमें न लायें कि मानो स्टेट कोई व्यक्ति है या कि वह जन-सामान्यसे अला कोई सत्ता है । 'शिक्षा'का मतलब है व्यक्तिका समाजोपयोगी विकास । व्यक्तिकी उपयोगिता पहले अपनेसे और घरसे आरंभ होती है, यद्यपि वह वहाँ समाप्त नहीं होती । यानी माता-पिता और परिवारसे आगे बढ़कर क्रम-क्रमसे पुत्रको नागरिक होकर समाज और जाति के लिए भी उपयोगी होना पड़ता है। इसलिये क्यों न कहा जाय कि बालककी आगंभिक शिक्षा तो स्वभावतः माता-पिताके द्वार ही होती है । यह नहीं समझा जा सकता कि जन्मके दिनसे ही बच्चा कुछ सीखना