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प्रस्तुत प्रश्न
निन्दित ठहरा कर उसे हठ-पूर्वक रोकनेकी चेष्टा न करें ? तो मेरा उत्तर है कि चाहे तो ऐसी चेष्टा कर देखें, पर वह अकारथ होगी। ___ संभोगको जो उत्तरोत्तर संयमसे बाँधने का प्रयास मानव-जाति करती चली
आई है, उसके माने ही यह हैं कि अनर्गल प्रजनन रुके । किंतु, कृत्रिम संततिनिरोध अगली संततिको रोके अथवा न रोके, पर इस संततिको तो वह निर्बल ही बनाकर छोड़ेगा । कहा जा सकता है कि उससे दोहरा नुकसान है। अगर उस प्रकारके संतति-निरोधको लाभ भी कह दिया जाय, जो कि असलमें वह है नहीं, तो भी उससे होनेवाली तात्कालिक हानि तो स्पष्ट ही है।
मैं स्पष्टतया संयमके अतिरिक्त दूसरे उपायोंसे गर्भ-निरोधके पक्षमें नहीं हूँ।
प्रश्न--क्या आप किसी ऐसी कामावस्थाको माननेके लिए तैयार हैं जब मनुष्यका अपनेको खाली (purge) करना जरूरी
और वांछनीय ही हो? ___ उत्तर-हाँ, जो भोग तात्कालिक सामाजिक विधान को बिना तोड़े भोगा जा सकता है वह नाजायज़ नहीं है। उससे आगे बढ़ने का हक मनुष्यको नहीं है। ___ यदि प्रश्न हो कि क्या अपराधी के लिए अपराध जरूरी है, तो इसका क्या उत्तर बनेगा? ज़रूरी न बन गया होता तो अपराध होता ही क्यों ? लेकिन, इतना कहकर भी वह अपराध दंडनीय फिर भी ठहरता है । सामाजिक दंड-विधानके (IPenal Codeके) दायरेमें जा आ जाय वह अपराध कर्म, चाहे वह अपराधीके दृष्टि-कोणसे लाचारीका परिणाम ही हो, क्या उस कारण दोप-हीन हो जायगा ? एक व्यक्ति अपने बच्चोंकी भूख न सह सकने के कारण चोरीका अपराध करता है । इस हालतमें चारीको जरूरी कहा जाय या नहीं ? शायद है कि अदालती जज भी वैसी दारुण भूखकी परिस्थिति में चोरीके अतिरिक्त और कुछ न कर सकता। फिर भी, चोरी चोरी समझी जायगी और परिस्थितियों के कारण वह व्यक्ति निदोष न कहलाएगा। अपराध-विज्ञान अधिकाधिक हमको यह बतलाता जाता है कि उस अपराध-वृत्तिसे छुटकारा पानेके लिए यह अधिक संगत है कि हम उस अपराधको अपराधीके स्थानसे देखें, न कि जजके स्थानसे । तब अपराधीको दंड देनेके बजाय अपराधके मूलको निर्मूल करने की प्रेरणा अधिक होगी।
इसीलिए, ऊपरके उदाहरणमें मैं यह कहना चाहूँगा कि काम-वासनाको निषेधनियमोसे बाँधनेसे अधिक यदि किन्हीं उपयोगी प्रणालियोंमें ढाल देनेकी चेष्टा की