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सन्तति
जावे, तो यह अधिक कार्यकारी होगा । जिसका मतलब यह होता है कि नैतिकता की वृद्धिकी दृष्टिसे हम सामाजिक संघटन और उसके आर्थिक बॅटवारे की विषमताको न्यून से न्यूनतम करे । जीवन समूचा एक तत्त्व है और आर्थिक दुश्चिन्तासे घिरनेर नैतिक स्थिरता और उच्चता दुर्लभ ही बनती है ।
प्रश्न - संभोगमें संयम एक साधना है और सांस्कृतिक विकासद्वारा ही विकसित होनेवाली चीज है । उसकी सिद्धि होनेतक कुछ न कुछ असंयम हो ही जाता है । किन्तु, उस कमसे कम एवं अनिवार्य असंयमको अवांछनीय संतति- उत्पादनका कारण भी क्यों चनने दिया जाय, और कृत्रिम उपायद्वारा ही क्यों न उसके दुष्परिणामसे रक्षा की जाय ?
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उत्तर - कौन जाने जिस संततिको अवांछनीय कहकर हम कृत्रिम साधनोंसे रोकते हैं, वह किस हदतक अवांछनीय है । क्या इस निर्णय में हमारा मोह भी नहीं हो सकता ? मैं देखता हूँ कि समर्थ दंपति, जिनके पास सामर्थ्य है और शिक्षा हैं, वे अपनी स्वच्छंदता बनाये रखने के लिए और संभोग निर्वाध रखनेकी इच्छासे कृत्रिम उपायों से संतति से बचते हैं । हमको अपने कर्म-फलसे बचनेका हक़ नहीं है । वैसा बचाव संभव भी नहीं है । स्वाभाविक फलसे बचेंगे I तो अस्वाभाविक परिणाम हमपर हावी हो जायेंगे । जिसको दुष्फल कहा ( अथात् संतति ) उसको संयमसे बचानेकी क्षमता जब तक नहीं है, तब तक चलो, अपनी चतुराई के बलसे बच जायँ, यह कहना अपनेको धोखा देना ही है । अव्वल तो कौन जाने कि कौन बच्चा आगे क्या कुछ निकलेगा । गरीबोंके बच्चाने इतिहास में क्या कम चमत्कार दिखाये हैं ? इसलिए, अव्वल तो यही संदिग्ध है कि संतति-उत्पादन दुनिया की दृष्टिसे अनिष्ट ही है । पर, यह मान भी लें, तो मैं समझता हूँ कि उसूल तो यही पक्का है कि आँख भुगतने पर खुलती
संयमकी आवश्यकता भी
है। संतति बढ़ती जायगी तो माता-पिताओं के निकट प्रकट होती जायगी । फिर भी, उसके पालन में यदि वे शिथिल होंगे, तो और क्लेश उठायेंगे । आखिर उन्हें आँखें खोलनी ही होंगीं । नहीं, आँखें खोलेंगे तो संभव है कि बिलखते ही उनके सब दिन करें ।
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और भाई, यह समझना भयंकर है कि दुनियाको बच्चोंकी और जवानों की जरूरत नहीं । वे सदा जरूरी हैं और चूँकि आजके बच्चे कल जवान और कलके