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प्रस्तुत प्रश्न
नहीं लगाते हैं, तो वे उन लोगोंकी अपेक्षा आखिर समाजके प्रति कौन बड़ा अहित करते हैं जो उसी शक्तिसे संतानोत्पादन करते हैं ? क्या जीव-क्रम चलना और चलना ही चाहिए, ऐसी कुछ अनिवार्यता और आवश्यकता है ?
उत्तर-हाँ, प्रकृतिकी ओरसे ऐसी ही कुछ अनिवार्यता मालूम तो होती है। यदि जीवन है तो वह अभिव्यक्त भी होगा । नहीं तो, जीवन क्या है ? जिसको उत्पादन कहते हैं, वह फलकी दृष्टिसे तो उत्पादन है, पर मूल प्रेरणाकी दृष्टिसे तो उसे अभिव्यक्ति ही कहना चाहिए । जीवनके माने है निरन्तर प्रवाहशील चैतन्य । चैतन्य चैतन्यको जन्म देता है । ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपनेको समूचे तौरपर चैतन्य-जागृतिमें लगा दिया, वे सहज रूपसे ब्रह्मचारी भी रह सके । पर कोरी ठान ठानकर कौन ब्रह्मचारी रह पाया है ? कोई अगर रहा भी हो, तो वह उस ब्रह्मचर्यके परिणाममें कुछ अक्खड़ और असहिष्णु बन गया होगा । असहिष्णुता और अक्खड़पन असामाजिक हैं । ऐसा ब्रह्मचर्य भी हितकर नहीं है । विवाह मेरे खयालमें स्वभाव-पालन और स्वभाव विकासकी राहमें आ ही जाता है । मुझसे पूछिए तो विवाहको मैं अनिवार्य ही कह सकता हूँ। जिनके लिए फिर ब्रह्मचारी रहना वैसा ही अनिवार्य हो, उन्हींको हक आता है कि वे अविवाहित रहें । अविवाहित-पनको अपने आपमें कोई बड़ो चीज़ मानना गलत है । मैं सोचता हूँ कि जो ब्रह्मचारी समझे जानेके मोहके कारण विवाहसे मुँह मोड़ते हैं, वे अपना या समाजका लाभ नहीं करते ।
प्रश्न-संतानोत्पत्तिमें स्वभाव अथवा प्रकृति-रूपसे मानवशक्तिकी अभिव्यक्ति होती है। किन्तु, अभिव्यक्तिको समाजके प्रति कर्तव्यकी डोरमें बाँधकर भी क्या हम संभवनीय समझ सकते हैं? यदि ऐसा नहीं, तो वह कर्त्तव्य क्यों कर कही जा सकती है ? दूसरे, क्या स्वभाव भी कर्त्तव्य-अकर्तव्यकी रेखाओंसे घिर सकता है ?
उत्तर-अभिव्यक्ति, सच तो यह है कि, एक अनिवार्यता ही है। इसलिए शुद्ध तात्त्विक दृष्टिसे कहा जाय तो कहना होगा कि जो कुछ हो रहा है, वह किसी तत्त्वकी अभिव्यक्ति ही है। किसीके किये-धेरे कुछ नहीं हो रहा है।