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व्यक्ति और समाज
कर कह सकता है कि अपने वर्तमानका कर्ता सम्पूर्णतासे वही है ? और छाती ठोककर जो यह कहेगा भी, उसका वर्तमान शायद किसीकी भी ईर्ष्याका कारण न हो सकेगा, क्योंकि वह चहुँ ओर मूर्ख समझा जायगा। आदमी है, तब उसकी परिस्थितियां भी तो हैं । आदमीको बनाने और बनाते रहने में क्या चहुँ
ओरकी परिस्थितियोंका कुछ भी महत्व नहीं है ? मनसूबे किसके मनमें नहीं होते, लेकिन आ जाता है भूचाल और हज़ारों वहींके वहीं सो रहत हैं । फिर भी जो मंसूबे बांधता है, और अपने भीतरके संशयसे अपनी रक्षा करने के लिए बाहर जाला फैला घेरा-सा डालकर बैठता है, उसकी अक्ल के लिये मुझसे धन्यवाद मत माँगिए । अपने भीतरके संशयका गड्ढा किसी बाहरी नाकेबंदीसे भरनेवाला नहीं है । अपनी हवेली के बाहर लठैत चौकीदार रख देनेसे क्या भयसे हम मुक्त हो जाते हैं ? इससे फिर कहता हूँ, कि सच्ची बात तो श्रद्धा है ।
प्रश्न-किसी वस्तुके प्रति मोह या ममता तो मेरी समझमें उस चीजके प्रति लगाव बनाये रखनेकी चाह ही है, वह उसकी आवश्यकताको मानकर उसे रखने में नहीं है। दसर, आपने भविष्य
और उसके चान्स जैसी चीज़की वात जो कही, उसे मानकर भी मनुष्य हाथपर हाथ रखकर बैठ नहीं सकता। उससे तो जो कुछ बनेगा, कंरंगा ही। वह कर्म क्या फल लाता है, यह दूसरी बात है। किन्तु, उसके करनेसे आप कैसे इन्कार कर सकते हैं ? और क्या आप ही अपने घर आज खाकर, कल और परसोंका भी प्रबंध नहीं रखते हैं ?
उत्तर-यह बात ठीक है। मैं आज खाता हूँ, कलका भी प्रबन्ध रखता हूँ। लेकिन, इसके लिए मैं अपनी तारीफ़ नहीं कर सकता । कलका, परसोंका, बालकोंका, नाती पोतोका, युग-युगान्तरका ध्यान रखकर उसकी व्यवस्थाकी में सोचूँ, तो वह दूर-दृष्टि नहीं कहलायगी, वह मोह-दृष्टि कहलायगी। मोहदृष्टि इसलिए, कि इस सब शृंखलामें मैं अपना ही अपना विचार करता है, अपनेसे परके प्रति उसमें जरूरी तौरपर अविचार आ मिलता है । अपने भविष्यकी चिंता रखकर क्या मैं दूसरोंके वर्तमानको उजाइने नहीं चल पड़ता.? तब यह मोह नहीं, तो क्या है ?
भविष्यकी आकस्मिकताकी बातको इसलिये नहीं कहा कि निष्क्रियता फैले ।