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प्रस्तुत प्रश्न
आज हमारे पास हैं, कल अगर वे नहीं होंगी तो हमें दुख उठाना पड़ेगा। और इसलिए केवल उस दुखसे वचनेके लिए हम समझें कि वे हमारे पास होकर भी हमारी नहीं हैं। किन्तु, क्या इस तरहसे हम उस सुखसे भी वंचित नहीं हो जाते हैं जो हमें उन्हें अपने पास समझनमें होता है ? और इसलिए हम क्यों न उन्हें, जव तक भी वे हमार पास हैं, अपना समझें और साथ ही उनसे वंचित होनेके लिए तैयार रहें ?
उत्तर-जो अपना समझकर सहर्ष चीजोंसे वंचित होनेको तैयार रहता है, वह तो मेरी ही परिभाषाका प्राणी हो गया । यानी, वह उपयोगके नाते वस्तुको अपनी समझ लेता है, फिर भी, न उसे अपनेसे चिपटाता है, न स्वयं चिपटता है। हमें जब प्यास लगे पानी पीलें । लेकिन, यह तो समझदारी नहीं है कि इसके लिए एक झीलपर नाकेबंदी बैठा दें और किसी दूसरेको पानी लेने उसके पास भी न फटकने दें और कहें कि वाह, हमको पानीकी जरूरत है, इसलिए हम किसीको इसमें से पानी नहीं लेने देंगे । हविस और भी बढ़ जाय, तो यहाँ तक संभव हो सकता है कि उस झील का पानी वह कृपण आदमी न स्वयं बरते, न किमीको लेने दे; और उस झीलकी चौकमीमें ही दुबला होता चला जाय । इससे यह भी दीख सकता है, कि चीजोंसे मिल सकनेवाले आनन्दको, उन्हें अत्यधिक अपना मान लेनेसे, हम स्वयं ही कम कर लेते हैं । अतः, सच्चा भागी भी वह नहीं है जो भोगमें तृष्णा रखता है । क्योंकि, उसे तो तृष्णाकी चाट ही मार डालती है, भोगका आनन्द मिल भी नहीं पाता । इसीसे तो उपनिषद् कारने कहा, 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः'। यानी, त्याग-भाव द्वारा भोग्यको भोगो ।
प्रश्न-ऊपर आपने नाकेवन्दीकी बात कही और बतलाया कि उसमें मोह है । लेकिन, उस नाकेबंदीका कारण मोह न होकर क्या लोगोंकी चिंता ही नहीं है जो उन्हें भविष्यकी अनिश्चयात्मकताको सोचकर अपनी और अपनी भावी संतानकी सुरक्षाके लिये करनी पड़ती है।
उत्तर--अरे तो भाई, मोह और किस बलाका नाम है ? जैसे भविष्य हमसे ही बनेगा ! अपने अतीतकी तरफ देखकर क्या सचमुच कोई छाती ठोक