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७-कर्त्तव्य-भावना और मनोवासना प्रश्न-लेकिन, कर्तव्य यदि मनुप्यके स्वभावकी चीज़ बन जाय, उसमें उसकी दिलचस्पीका सवाल ही न रहे, तव मनुष्य अपना आनन्द कहाँ हूँढेगा ?
उत्तर-वाह, तब क्या आनन्द ढूँढ़ने जितना मी दूर रह जायगा? जिस व्यक्ति के लिये कर्त्तव्य कर्म ही सहज कर्म हो गया है, उसे तो स्वयं आनन्द हो गया ममझिए । वह तब आनन्दकी ज़रूरतमें नहीं रहेगा, बल्कि आनन्द देनेकी ज़रूरत उसमें हो आयेगी । यानी, तब लोग उसमें और उससे आनंद पायेंगे।
प्रश्न-मेरे प्रश्नका अभिप्राय यह था कि जो बात हमार स्वभावमें आ जाती है, वह हमारे प्रयत्नका लक्ष्य या विषय नहीं रह जाती। यानी, तव प्रयत्न ( Pursuing ) और उसका लक्ष्य (Object ) दोनों खत्म हो जाते हैं । किन्तु, क्या प्रयत्नके बिना, Effort के बिना, जीवन और जीवनका आनंद संभव हैं ?
उत्तर-हमारा ध्येय (Objective in pursuit) क्या है ? क्या उसे हम आत्म-लाभसे भिन्न कह सकते हैं ? मैं समझता हूँ, उसे आत्म-लाभ ही कह सकते हैं,-वह आत्म-लाभ जो कि परमात्म-लाभ भी है । यानी, अपने सच्चे स्वरूपको पानेके लिये हम जी रहे हैं । मरेंगे, लेकिन उसी हेतुसे फिर जियेंगे । जब तक अपना शुद्ध स्वत्व न पा लें, तब तक भौतको भी छुट्टी हम नहीं दे सकेंगे।
शुद्ध स्वत्व चिन्मय है, आनन्दमय भी है । जब हमने अपने ही स्वभावको पा लिया और कोई विकार शेष नहीं रह गया, तब आनन्द भी हमसे इतना दूर नहीं रह सकता कि उसे खोजकर पाना हो ।
कर्तव्य जहाँ सहज हो गया है, वहाँ वह हेतु ही अनुपस्थित है जो आनन्दमें बाधा-स्वरूप होता है । बाधा हटी, कि फिर आनंदके अभावका प्रश्न ही मिट गया। ___लेकिन, यह स्थिति आपने क्या इतनी सुगम समझ ली है कि जल्दी ही प्राप्त हो जायगी ? यह तो पूर्ण सिद्धिकी स्थिति है । जहाँ कर्ममें काभ्य और अकाम्य,