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प्रस्तुत प्रश्न
कर्तव्य होना चाहिए? अभिभावकके प्रति उत्सर्गकी भावना रखकर अवज्ञा न भी की जाय, तो क्या अनुचित होगा?
उत्तर-सविनय अवज्ञा उस समय कर्त्तव्य है । उत्सर्ग कर्त्तव्यका नहीं किया जाता । कर्त्तव्यके लिए मोहका उत्सर्ग किया जाता है । आत्म-हत्या चाहे जिस अवस्थामें हो, पाप ही है । कोई यह मान कर कि मैं अपनेको उत्सर्ग कर रहा हूँ, अपनेको मार नहीं सकता । ऐसे उदाहरण मिलते अवश्य हैं । धर्मके नामपर, प्रेमके नामपर, थोड़ा-बहुत गर्वके भावसे लोग आत्म-घात कर लेते हैं। लेकिन, हमारा जीवन हमारा ही नहीं है । जिसने वह दिया, वही जब उसे लेना विचारे, तब दूसरी बात है । अन्यथा मृत्यु आने तक उस जीवनकी रक्षा ही कर्तव्य है । आशय यह कि माताको, पिताको, सभीको तजा जा सकता है, पर अपने स्वधर्मको तो नहीं छोड़ा जा सकता। इसलिए, यदि आत्म-मोह नहीं है तो वर-कन्याको माता-पिताकी इच्छापर अपनेको कुरबान कर देनेका हक नहीं रहता और उनके आदेशकी (विनीत ) अवज्ञा करके भी स्वधर्म-पालन करना उचित हो जाता है।
प्रश्न- अभिभावकों द्वारा विवाह-सम्बन्ध निश्चित होनेके पूर्व वर-कन्याका एक दूसरेको देखना क्या आवश्यक है ?
उत्तर-रिवाजन तो आवश्यक नहीं है । सच यह है कि इसके बिना भी काम चल सकता है । लेकिन, आपसमें देखा देखी होने ही न पावे, ऐसे आग्रहमें कुछ अर्थ नहीं है । मतलब यह है कि यदि तक हो सब काम सहज भावसे होना चाहिए जिससे वासनाको कमसे कम गुंजायश मिले । परस्पर परिचय निषिद्ध नहीं है, बल्कि उपयोगी ही है । जहाँ देखनेके मानी सिर्फ एक दूसरेकी आकृति और रूप देखना भर है, तो वैसा देखना न देखना एक-सा है।
देखनेकी बात तो यहाँ तक बढ़ गई है कि वर-पक्षके लोग कपड़े उतरवाकर अंग-प्रत्यंगकी जाँच करते हैं । यह लजाजनक है। इसलिए बाहरी देख-दाखकी पद्धतिका समर्थन मेरे मनसे नहीं निकलता।
प्रश्न- क्या अभिभावकोंके लिए वर-कन्याको देखना आवश्यक है ?
उत्तर- हाँ, कतई आवश्यक है। देखना क्यों, पूरी तरह जानना और. समझना आवश्यक है।