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विवाह
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तरह विवाहसे पहले जान लिया जायगा तो विवाह नीरस हो जायगा । असलमें विवाहसे पूर्व कुछ ऊपरी विवरण ही जान लिये जा सकते हैं। व्यक्तिकी भीतरी प्रकृति तो परखनेपर ही खुलती है । तब क्या वह यह जाने कि मैं उसके योग्य हूँ या नहीं ? असल योग्यता तो तभी है जब वह विवाह के बाद भी प्रमाणित टहरे । इससे मैं मानता हूँ, कि जरूरतसे बहुत अधिक जाननेका आग्रह वर-वधूके लिए इस मामलेमें विशेष अर्थकारी नहीं होगा । सच कहा जाय तो विवाह समर्पणका संबंध है । और समर्पणकी भावना उसीके प्रति संभव है जो सर्वथा ज्ञात ही नहीं है, बल्कि जिसमें अज्ञात काफी कुछ है ।
प्रश्न-आप मानते हैं कि वर-वधू स्वयं अपने विवाहके उपयुक्त निर्णायक नहीं हैं, क्यों कि वे ऊपरी वातोंसे वहक सकते हैं ।
लेकिन, बहुधा अभिभावकोंके वारेमें क्या नहीं देखा जाता कि वे विवाह-संबंध करते समय उन अपने निजी आर्थिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा-आदिकी धारणाओंस (Considerations से) वहक जाते हैं जिनका वर-वधूके हितसे कोई संबंध नहीं होता ?
उत्तर-अगर अभिभावकोंमें ऐसी बहक है, तो वयःप्राप्त युवा और युवती सविनय अवज्ञाका व्यवहार प्रयोग कर सकते हैं। वे तब अभिभावकोंका निर्णय रद्द कर सकते हैं और स्वयं अपना संबंध चुन सकते हैं। लेकिन, यह ध्यान रहे कि उस सम्बन्धके चुनावमें वैसा बाहरी मोह न रहे । सविनय अवज्ञाके प्रयोगका अधिकार उसीको है जो उस अस्त्रको धर्म-भावसे ग्रहण करता है। उसमें जरूरी तौरपर अपेक्षाकृत एक सामाजिक कर्त्तव्यका उल्लंघन आ जाता है। किन्तु, वह उल्लंघन अपने लिए नहीं है, सामाजिकसे भी बड़े किसी कर्तव्य, अर्थात् मानवीय कर्त्तव्यके पालनके लिए है । अपनी तृष्णाकुल आकांक्षाओंसे लुब्ध होकर हम यदि माता-पिताकी इच्छाओंका, चाहे फिर वे इच्छाएँ अर्थलालसासे विकृत ही हों, विरोध करेंगे, तो उससे यह कहना कठिन होगा कि हमने बुराईका विरोध अच्छाईसे किया है। दूसरेकी बुराईका विरोध अपनी बुराईसे नहीं किया जा सकता। इसलिए, यदि इस ( सत्याग्रह ) तत्वकी मर्यादाका पालन हो, तो वर-कन्या अभिभावकोंकी मर्जी के विरोध भी परिणयमें बँध सकते हैं।
प्रश्न-उपर्युक्त परिस्थितिमें अवज्ञा (सविनय ) करना क्या