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प्रस्तुत प्रश्न
विवाहका वही स्वरूप है, और हरेक विवाहको अधिकाधिक तदनुरूप होना चाहिए । जो ऐसा नहीं है, वह उतना ही कम 'विवाह' है ।
प्रश्न – इतिहाससे ज्ञात होता है, हरेक पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार सुन्दरसे सुदर स्त्रीपर, और वह भी अधिक से अधिक संख्यामें, अधिकार पाने की चेष्टा करता आया है । तो यह विवाह पुरुषकी अधिकार भावनाका विकास स्वरूप ही क्यों न माना जाय ?
उत्तर -विकास-स्वरूप ऐसे विवाहोंको इसलिये नहीं मान सकते कि वे विकास में सहायता नहीं देते। इसमें क्या उस पुरुपका कोई अपना विकास हुआ कहा जा सकता है जिसने ऐसे अनेकानेक भोग-विवाह किए हैं ? या कि उन स्त्रियों का ही किंचित् विकास हुआ माना जा सकता है जिनसे विवाह के नामपर ये संबंध स्थापित किये गये और विवाह ( ? ) के कुछ ही बाद जिन्हें जनानखाने में घुटते रहने के लिए पटक दिया गया। इससे समाजका क्या कोई सुख बढ़ा ? किसी व्यक्ति का कोई सुख बढ़ा ? फिर यह ' विकास ' कैसा ?
प्रश्न -- मैं यह नहीं कहता कि उस विवाहसे समाजका वास्तविक विकास हुआ कि नहीं। बल्कि कहनेका अभिप्राय यह था कि मनुष्यकी स्त्रीपर अधिकारकी वृत्तिहीका समाजके साथ समन्वय विवाह रूपमें हुआ है । क्या इसमें आपको कुछ आपत्ति हैं ?
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उत्तर- - समन्वय इस रूप में हुआ है, यह तो मैं मान लूँगा । पर इसी में यह आ जाता है कि अमर्यादित अधिकार जब संभव नहीं दीखा, तब मर्यादा के रूपमें यह संस्था पैदा की गई । इसका आशय यही होता है कि अधिकारकी भावना उसके मूलमें नहीं है, बल्कि उस अधिकारको संयत करने की आवश्यकता उस संस्थाके जन्मका कारण है । विवाह किसी जाति में भी देखिए, वैवाहिक विधिको निष्पन्न करनेवाली जो रीतियाँ और जो मंत्र हैं, उनमें मनुष्यकी हीन-वृत्ति नहीं, बल्कि उत्कर्ष वृत्ति ही व्यक्त हुई है । सब विवाह - विधियों में समर्पण की भावना है, वफादारीकी प्रतिज्ञा है । यह ठीक है कि प्रबलने अबलको अपना गुलाम समझने के लिए विवाह संस्थाको एक सहारा ही चाहे बना लिया, किन्तु, ऐसे विवाहित आचरणको कभी भी सफल नहीं समझा