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आकर्षण और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध
प्रश्न--तो क्या वह कवियित्री अपने जीवन-विकासको अच्छेसे अच्छा अवसर देने में समाजके प्रति अपना कर्त्तव्य नहीं समझ सकती?
उत्तर-आपको कवियित्रीकी चिन्ता विशेष है । उसके जीवन-विकासके लिए तो यह और भी परखका मौका है। अपनी उसी साधारण जिंदगीमें भी क्यों उस परम ध्येयको नहीं खोजा जा सकता जो ऊँचेसे ऊँचे काव्यका विषय है ? अगर काव्य भीतर है, तो बाहरकी कौन चीज़ रुचिर होनेसे बच सकती है ?
प्रश्न-अच्छा, यह तो सब ठीक है । लेकिन मेरी समझमें अभी यह नहीं आया कि उन सब शाके साथ जो मैंने कहीं, अलग होनेमें उनका या समाजका अहित ही क्या हो सकता है ?
उत्तर-विचारपूर्वक और सद्भावनापूर्वक दो मिले हुए व्याक्त अलग भी हो सकते हैं । यह बात पति-पत्नीसंबंधमें भी लागू है । तृष्णापूर्वक, रोषपूर्वक अथवा मदमत्त अवस्थामें वे एक दूसरेसे अलग होते हैं, तो उचित नहीं है। यह बात शायद मेरे पहले शब्दों में भी आ गई है।
प्रश्न--ऊपर आपने बतलाया कि पति-पत्नी समाजगत कर्त्तव्यकी पूर्तिके लिए एक दूसरेकी अनुमति बिना भी अलग हो सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि एकको दुखी करके भी बहुतोंको सुखी करनेका प्रयत्न उचित ही है। किन्तु, क्या इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि अहिंसाका आरंभ हिंसासे भी किया जा सकता है ?
उत्तर-नहीं, इससे यह सिद्ध नहीं होता। हिंसा होती नहीं है, वह की जाती है । मुझको कारण बनाकर अगर किसीका मन दुखी रहता है, तो मैं उस हेतुसे हिंसाका अपराधी नहीं समझा जा सकता । हिंसा भावनाश्रित है, इसी तरह अहिंसा भावना-मय है । अगर मनमें प्रेम भरा है तो ऐसे व्यक्तिका आचरण आहंसक तो कहलायेगा, फिर भी यह दावा नहीं किया जा सकता कि उसको कारण बनाकर कोई प्राणी अपनेको दुखी नहीं बना सकता। इस भाँति यह कहना संगत नहीं है कि हिंसाद्वारा अहिंसा फल सकती है। हाँ, हिंसाको देखकर अहिंसाकी संकल्प-शक्ति बढ़ जरूर सकती है ।