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प्रस्तुत प्रश्न
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पदार्थकी जाने कितनी स्थितियाँ नहीं बदल जातीं । किसी एक स्थितिको किसी समयखंडमें जड़ देना असंभव - प्राय है । इससे एक सूत्रकारने कहा है' उत्पादव्ययश्रव्ययुक्तं सत्' – अर्थात् होना होते रहना है, Being is Becoming । प्रत्येक स्थिति में बनना और बिगड़ना शामिल है । इसलिये परिणमनके ( Becoming के ) किसी एक रूपको लेकर उसे दूसरेपर तरजीह देना, किसी प्रयोजनसे हो तो हो,- - अपने आपमें सही नहीं है । मुझे अगर जागरण पसंद है, तो कुछ काल बाद बिना नींद लिए वह जागरण असंभव हो जायगा । इस भाँति, जागरण की पसंदगीके रास्ते में ही नींदको पसन्द करना मुझे सीख लेना होगा । नहीं तो, रातको यदि मैं सो न लूँ, तो, कितने दिन मैं जागता रह सकता हॅू ? इसलिये यदि बहुत दिन जगते रहना चाहता हूँ, तो उचित है कि बीच-बीच में सो भी जरूर लिया करूँ । इस दृष्टिसे किसी दूसरीकी अपेक्षा किसी एक स्थितिको पसंद करनेका प्रश्न विशेष महत्त्व - पूर्ण रहता ही नहीं ।
( ६ ) बुढ़ापेमें वैसे और जवानी के दिनों में जवानकी तरह रह सकूँ, यह मैं पसंद करूँगा ।
प्रश्न- आपने जो कुछ ऊपर कहा, ठीक है । किन्तु, मेरे प्रश्नका अभिप्राय तो आत्माकी स्वयंसिद्ध आनंदावस्थाके बारेमें समाधान पानेका था । मैं जानना चाहता हूँ कि ( स्थूल अथवा सूक्ष्म ) बाह्य स्पर्शके बिना वहाँ आनंद किस प्रकार होगा ? क्या वह नींदकीसी जड जैसी अवस्था ही न होगी, अगर हो सकती है तो ? और क्या हम उसे अपना ध्येय बनायेंगे ? और क्या जागरणकी जैसी अवस्था, जिसमें वाह्य स्पर्श और अनुभूति हैं, हैय हैं ?
उत्तर – ना, ना । उस बारे में समाधान न पाइये । वह यों न पाया जायगा । जो बोलता है, उसने समाधान नहीं पाया । जहाँ समाधान है, वहाँ भाषा मूक है । मैं बोल रहा हूँ, इसीसे साबित है कि मैं उस समाधानकी स्थितिको नहीं जानता । नहीं जानता, तब लाख बातें करूँ, उन बातोंसे उस स्थितिका तनिक भी आभास अपनेको या किसीको मैं नहीं दे सकता । जो अनिवर्चनीय है उसे वचनमें लाना धृष्टता है | मुझे वैसा धृष्ट मत बनाओ । वहाँ जाग नींद है, नींद जाग है । अंसल में सब शब्द अनंतकी गोद में अपना आकार खो रहते हैं ।