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कर्त्तव्य-भावना और मनोवासना
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और, उस स्थिति से पहिले स्व' और 'पर,' ये दो भेद हैं ही । इससे एकत्व- स्थिति से पूर्व, 'स्व' के लिए 'पर' की अपेक्षा में ही अपनेको जानना और जगाना संभव है । जगत्का कोई व्यापार स्व-पर-स्पर्श बिना संभव नहीं होता ।
प्रश्न – ख़ैर, मैं असल प्रश्नसे दूर हट गया । जानना तो मैं यह चाहता था कि यदि मनुष्य आनंदहीके लिये जीता हैं तो उस अपने आनंद के लिए जो कुछ भी वह करे और उसमें उसे आनंद भी मिलता हो, तो क्या उसके वैसा करनेमें अकर्त्तव्यकी संभावना हैं ? है तो क्यों ? और उस कर्त्तव्यसे उसे लाभ ही क्या जिससे उसे आनन्द न मिले ?
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उत्तर - कर्त्तव्य करने में एक अपना आनन्द है ही । जिसको हम आनन्द मान बैठते हैं, यानी ऐन्द्रियिक विषय, और वह आनन्द जो अतीन्द्रिय है, इन दोनों में विरोध अक्सर होता है । जहाँ यह विरोध नहीं है, वहाँ आपवाला प्रश्न उठता ही नहीं । जहाँ ऐसा विरोध है वहाँ कर्त्तव्यको ही चुनना चाहिए, चाहे फिर उसमें ऊपरसे निरानंद ही दीखता हो ।
प्रश्न -- मनुष्य समाजका अंग हैं और समाजके प्रति उसके कर्त्तव्य हैं, मर्यादाएँ भी हैं । लेकिन, यदि समाज किसी समय उसके मार्ग में इस प्रकार रुकावट बनती हो कि जिससे उसका जीवन शुष्क हो जांनकी संभावना हो, तो क्या उस समय उस समाजके प्रति उसका विद्रोह अनुचित होगा ?
उत्तर- आपके प्रश्नमें ' शुष्क ' शब्द अनिश्चित मानका द्योतक है । अगर उसका मतलब है कि स्वधर्म - पालन में कोई बाह्य सामाजिक परिस्थिति बाधक होती है, तो अवश्य उसको चुनौती देनी चाहिए । अपने सच्चे 'स्व' के इंकारपर तो समाज मजबूत नहीं बनेगा । समाज पनपेगा तो अपने 'स्व' के हार्दिक समर्पण से पनपेगा | जैसे विनय हार्दिक ही हो सकती है, ऊपरी तकल्लुफकी विनय नुकसान पहुँचाती है, वैसे ही समाज-विधान के प्रति व्यक्ति में यदि हार्दिक सम्मान है, तब तो ठीक है । नहीं तो, सिर्फ जाहिरदारी बरतना काफी नहीं है ।
प्रश्न -- क्या कर्त्तव्य मानकर प्रेम किया जा सकता है ? जैसे मैं अमुकको प्रेम करूँ, तो क्या इस तरह विचारपूर्वक प्रेमं संभव हो सकता है ?