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प्रस्तुत प्रश्न
मैं उसके कोषको संभाल कर रखनेसे डर जाऊँ ? सभाके खजानचीकी हैसियत से उस कोपपर अपना एक प्रकारका अधिकार भी मानकर मुझे चलना होगा, ऐसा न करनेसे मैं ख़जानचीके दायित्वसे च्युत हो जाऊँगा । हाँ, निजमें मेरा कुछ भी नहीं है, यह तो सिद्ध ही है । यहाँ तक कि यह शरीर भी शुद्ध 'मैं' नहीं हूँ | आत्मा भी क्या कोई मेरी अपनी है ? क्यों कि जीवात्मा परमात्माका अंश ही है । लेकिन, वह तो भावनाकी और तत्त्वकी बात हो गई । प्रयोजनीय भाषाकी तो यही पद्धति होगी कि जो धन मेरे तहत में है, वह मेरा समझा जाय । इसीलिए ' प्राइवेट प्रापर्टी' का समूलान्मूलन नहीं हो सकेगा, क्यों कि प्रापर्टी ( = सम्पत्ति ) स्वयं नष्ट नहीं हो सकती । जो हो सकेगा वह इतना ही कि व्यक्ति उसे अपना मानकर भी एक धरोहर मांन । इससे अधिक और चाहिए भी क्या ? त्याग और निर्मोह कोई स्थूल कर्म नहीं है । वह तो वृत्ति में होने योग्य है । नहीं तो, पदार्थों के प्रति अस्पृश्यताका भाव बना लेनेस व्यक्ति अक्षम ही बनता है ।
प्रश्न
-जब
मैं जानता हूँ कि इस स्थान है तो मैं किसी भी वस्तुको मेरी ही है और उसे मन चाहे जिस
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पृथ्वी के तलपर मेरा भी कोई क्यों नहीं कह सकता कि वह प्रकार खर्च करूँ ?
उत्तर:- अगर आप कह सकते हैं, तो दूसरा भी क्यों नहीं कह सकता ? और अगर पदार्थ के बारेमें यह कहा जा सकता है तो व्यक्तियोको लेकर क्यों नहीं कहा जा सकता ? यानी, क्या कारण है कि कोई आपको अपना गुलाम न बना ले ? उस गुलाम के स्थानसे आपको क्या वह तर्क ठीक लगेगा जिससे आप गुलाम बना लिये गये ? अगर तब वह ठीक नहीं है, तो और भी किसी अवस्थामें वह ठीक नहीं है | अमुक ( वस्तु ) 'मेरी' ही हो, इसमें जरूरी तौरपर यह अर्थ है कि दूसरेकी नजर भी उसे छूने न पाये । यह दुर्भावना ही तो हुई । वैसी दुर्भावना मनुष्य के अंदर गहरी पैठी हुई है, यह मानकर भी उसे बढ़ावा तो हम नहीं दे सकते ।
प्रश्न - तो क्या आप विश्वास करते हैं कि मनुष्य स्वयंमें सत्ता होते हुए भी समझे कि वह कुछ नहीं है ओर उसका कुछ नहीं है । यहाँ तक कि उस देहके लिए थोडेसे आकाशका भी वह