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प्रस्तुत प्रश्न
मुल्कोंमें आदान-प्रदान तो आवश्यक है ही । आवश्यकताएँ सबको है, इसलिए सबको कुछ न कुछ औरोंसे लेने की जरूरत है । अब एक 'लेना' तो छीन लेना है, दूसरा ' कुछ देनेके बदले में लेना' होता है जिसको समझौते का, समझदारीका या ' व्यापारका लेना' कह सकते हैं ।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि झपट लेनेसे काम नहीं चलेगा । इससे इमारी आदतें बिगड़ेंगीं और हमारी ही उत्पादनकी सच्ची शक्ति कम होगी ।
तत्र देनेकी एवज़में ही लेनेका मार्ग रह जाता है । और यह आपकी बात सही मालूम होती है कि क्यों न खूब कसकर वसूल किया जाय और चतुरता से काम लेकर कमसे कम बदले में दिया जाय । किन्तु, यह नीति आर्थिक लाभकी दृष्टि भी अंत में लाभदायक नहीं होगी ।
इसका उदाहरण लें | किसीके पास खूब गल्ला है, और मानिए कि उसकी कीमत ज़्यादह वसूल करने के लिए वह इस घात में रहता है कि जब दुर्भिक्ष पड़े और माँग तीखी हो जाय, तब उसे बेचे । ऐसे, एकाएक मालूम हो सकता है कि, बेचनेवाला अपना ख़ूब लाभ कर लेगा । यह भी हो सकता है कि लाभ उठाने के साथ ही साथ वह अपने को दुर्भिक्ष पीड़ितों का उपकारी कहने लग जाय । क्योंकि, जब लोग भूखे थे, तब उन्हें खानेको किसने दिया ? – उसीने तो दिया ? महँगे ही मोल सही, पर जब अन्नका दाना दुर्लभ था तब अन्नदाता तो वही रहा न !
मैं मानता हूँ कि, वह चतुर व्यापारी अपनेको चाहे जितना ही छले, पर सच यह है कि इस तरह उसने कोई बड़ा काम नहीं किया । सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो बहुत दिनों तक आदान-प्रदान के प्रवाहको रोक रखनेके कारण संपत्ति के उत्पादन और वृद्धि में उसने बाधा पहुँचाई । गल्ला जल्दी ही बिक जाता, तो दुर्भिक्षकी पीड़ा कम व्यापती और जो लोग भूखके कारण निकम्मे रहे, वे कुछ काममें लगते और उपजाते । इस प्रकार दुनियाकी संपत्ति और समृद्धि में कुछ बढ़वारी होती ।
व्यापारके भीतर स्वार्थकी तो गुंजायश है, पर वह स्वार्थ जितना ही अविरोधी होगा, व्यापार के हित साधन में उतना ही सफल होगा। उग्र स्वार्थ अगर एककी जेब को भरना है, तो साथ ही दूसरेको दीन बनाता है और जगतका क्षोभ बढ़ाता है ।