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प्रस्तुत प्रश्न
सकेगा । जरूर उसमें 'पर' को भी आना पड़ता है । विकार स्व-भाव नहीं है ।
इसलिए, समाजको संस्कार देते रहनेका प्रश्न अत्यन्त संगत है । उधरसे उदासीन होने की कल्पना भी मुझे नहीं है । फिर भी, मेरा आग्रह तो इतना ही है कि समाज जब कि आदमीके व्यवहारका क्षेत्र है, तब अन्तःप्रेरणा ही असल में उसकी कार्य-विधिका मूल है । मैं कभी यह नहीं कहना चाहता कि जिसको वह ' अन्तःप्रेरणा ' कहे, वह बिल्कुल उसकी अपनी ही है और सामाजिक अवस्थाका उसपर प्रभाव नहीं है । प्रभाव है, पर व्यक्तिको यदि व्यर्थ ( passive ) न ठहराकर हम उसे समाज - रचना में सचेष्ट भागीदार ( active participant ) समझते हैं, तो व्यक्तिको उस प्रेरणाका कत्ती भी मान लेने में हानि नहीं है ।
पर यहाँ तो फिर विचारकी उलझन आ जाती है । वह उलझन परमात्माका नाम लेनेसे ही दूर हो सकती है । परमात्मा जिसमें 'स्व' और 'पर, ' subject और object, व्यक्ति और समाज, साधन और साध्य दोनों एक हो जाते हैं
अंतिम हेतु ( Final cause ) जो है, वह आदि निमित्त भी है । वह स्वयंभू है । उसमें सत्य भी है, असत्य भी है । पुरुष और प्रकृति उसीके दो रूप हैं । वह स्वयं सृष्टि है और स्रष्टा है, वह परमात्मा ।
इससे, असलमें अगर देखा जाय तो ईश· निष्ठा से चलना ही सब प्रश्नोंका समाधान है | क्या प्रश्न सामाजिक, क्या राजनीतिक । क्यों कि जाग्रत ईश-निष्ठाके अर्थ हैं स्व-पर-समन्वयकी चाह और पहचान |
प्रश्न – कार्य-कारण, नैतिकता अथवा अनैतिकता, पाप-पुण्य या आपा-धापीके विचारको छोड़कर हम क्यों न मान लें कि हमारा जीवन केवल समयके साथ बाह्य परिस्थितियोंसे सामंजस्य स्थापित (adjust ) करनेमें है और इसलिए उन परिस्थितियोंके ही आवश्यक निदानमें और उनके साथ सामंजस्य - सिद्धि ( Harmonised ) होनेहीमें हमारी समस्याओंका हल है ।
उत्तर—मैंने जो कहा वह इससे कुछ दूर तो नहीं जा पड़ता । मेरा शेषके साथ समन्वय हो,~–बेशक इसी में पूरी सिद्धि है । लेकिन, समन्वय साधने चलते हैं तभी प्रश्न खड़ा होता है कि क्या तो कार्य है और क्या अकार्य है, क्या नीति