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प्रस्तुत प्रश्न
चलते दीखते हैं । तो मैं कह सकता हूँ, और यह कहना बिल्कुल यथार्थ होगा, कि उन व्यक्तियोंकी स्वशासनकी अक्षमता ही बाहर आकर सामाजिक दंडविधानका स्वरूप लेती है। __ सोसायटीके व्यक्ति जिस योग्य होते हैं उसकी संस्थाएँ उतनी ही योग्य होती हैं । जहाँ कानून ज्यादा है वहाँ उसको सार्थक करनेके लिए अपराध-वृत्ति भी उतनी ही है।
प्रश्न---जव समाजका नियंत्रण आवश्यक और उचित ही है, तो क्या हर व्यक्तिका यह कर्तव्य नहीं हो जाता है कि वह उसकी अवज्ञा न करे ? __ उत्तर-हाँ, अवज्ञा धर्म नहीं है। और यदि किसी विषम परिस्थितिमें अवज्ञा करनी भी पड़े, अर्थात् बंगी अवज्ञा धर्म भी हो जाव, तो भी यह शर्त है कि वह सर्वथा सविनय ही होगी। __ आग्रह याद हो सकता है, तो सत्यधर्मके कारण ही हो सकता है और प्राणी-मात्रके लिए आग्रा के सत्याग्रह हानकी एक अनिवार्य शर्त अहिंसामयता हो जाती है। ___ ऐसा व्यक्ति किसीके प्रति बुद्धिपूर्वक विद्रोही नहीं होता । वह सबका हित चाहता है । जो सबका है, वही हित सच्चा भी हो सकता है । उस सच्चे हितको ध्यानमें लेकर हमारे माने हुए बहुतसे झूठे हितोको ( = स्वार्थीको ) वह ( = सत्याग्रही ) तोड़नेसे जरूर तत्पर दीखता है । इस तरह व्यवहारमें वह उग्र विद्रोही भी जान पड़े, पर भीतरसे वह स्नेही ही है।
प्रश्न--क्या हर प्रकारका बाह्य शासन मनुप्यके चरित्रविकासमें वाधक नहीं है और इसलिए अनुचित भी?
उत्तर-नहीं, अधिकतर साधक है । बाह्य शासन, पहले ही कहा जा चुका है, तभीतक शासन-रूपमें टिक सकता है जबतक अन्तःशासनमें कुछ त्रुटि है । जब भीतरसे जीवन स्वावलम्बी हो आयगा तब बाह्यावलंब अनावश्यक होकर स्वयं बिखर रहेगा । अंडेका खोल तभी तक है जबतक भीतर जीवन पक नहीं पाया है । वह ( - बच्चा) समर्थ बना कि खोल टूट ही जायगा । क्या हम यह कहें कि वह खोल बच्चेके बनने में बाधक है ?
प्रश्न--किन्तु, वास्तविक विकास क्या भीतरी अभावकी