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व्यक्ति और शासन-यंत्र
स्वाभाविक स्वानुभूतिके विना संभव है ? क्या उसके लिए अपनी त्रुटियोंकी अनुभूति आवश्यक ही नहीं है ?
उत्तर--अवश्य आवश्यक है। त्रुटिको पहचानना तो है ही। मगर उसे दूर करना है । उसे पोसना नहीं है।
प्रश्न--किन्तु वाह्य शासनके होते हुए क्या वह स्वाभाविक स्वानुभूति संभव है ?
उत्तर--जरूर, बल्कि बाह्य अवरोधके कारण वैसी अनुभूति अनिवार्य ही हो जाती है। हमारे सपने क्यों सच नहीं हैं ? इसीसे तो कि वे बाह्य के स्पर्शपर छू हो जाते हैं। हमारी मनगढंत बाते मनगढंत है, यह बोध हमें तभी तो होता है जब उनसे दुनिया टससे मस होती नहीं दीखती। वैसा बाह्य अवरोध निरन्तर हमारी अनुभतिको चैतन्य और जाग्रत बनाता है। बल ही और किसका नाम है ? अवरोध है, तभी तो बल आवश्यक है । वह अवरोध जितना दृढ़ होगा, उतना ही तो बलको प्रबल होना होगा। might iss resistance | ___ आप कहेंगे, शासनको पहल साधक बताया गया, अब उमीको अवरोधक कहा गया है। हाँ, कहा तो गया है । कारण, अवराधक होनेके द्वारा ही वह साधक होता है, क्यों कि अन्ततः हममें आत्म-चैतन्य जगाता है ।
प्रश्न-क्या वाह्य जीवन स्वयं ही विना किसी कृत्रिम अवरोधके आत्मामें समन्वयकी प्रेरणा नहीं जगाता है, और इसलिए स्व-शासनकी भावना पैदा करनेका कार्य नहीं करता है ? फिर, स्टेटके शासनकी क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-समन्वय तो चाहिए न ? ' चाहिए' में गर्भित है कि अभी समन्वय है नहीं। आप कहते हैं कि अगर स्टेट जैसी चीज भी कोई न हो और धाँधली ही हो, तो क्या यह न माने कि ऐसी अवस्थामें मनुष्यों और समाजमें खूब त्रास पैदा होगा, और उसके कारण समन्वय पानेकी उत्कंठा भी उतनी ही तीव्र होगी ? एक प्रकारके विनारक हैं जो ऐसा सोचते हैं। वे कहते हैं, अँधेरा खूब घना होगा तो प्रकाशको उसी से फूटना पड़ेगा । एक हदसे पार पहुँचनेपर कोई वस्तु अपने ही नाशका कारण हो जाती है । इसीसे मचने दो क्रान्ति, क्योंकि जब घमासान होगा, तब शान्तिका असह्य अभाव ही शान्तिको खींच