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प्रस्तुत प्रश्न
कारण करणीय है, ऐसा नहीं। इसी आशयमें मैंने कहा कि जो आवश्यक है, अर्थात् होनहार है, उससे रुष्ट और विक्षुब्ध होकर अपनेको अक्षम बनानेका अधिकार आस्तिक जनको नहीं है। वह उसमे किंचित् सहयोग देकर भी उसके दोषों के प्रति असहयोग भाव ही रखता है।
आपकी यह बात ठीक है कि महापुरुष मस्तक ही मस्तक नहीं है, वह हाथ भी है । ऐसा नहीं है, तो महापुरुष ही नहीं है । इसीलिए, यह सत्य है कि महापुरुष अपने समयका प्रतिनिधि होता है । उस समयकी मर्यादाएँ भी और आकांक्षाएँ भी उसमें स्वरूप पाती हैं। युगका प्रतिनिधि है, यानी उसकी त्रुटियोंका भी प्रतिनिधि है । वह काल-पुरुष ( Man Of Destiny ) होनेके कारण एकात भावसे किसी एक दल अथवा एक वर्गके साथ नहीं हो सकता । वर्ग अथवा दल उसके साथ लग पड़ें, यह दूसरी बात है। उधर शासन लगभग अनिवार्य रूपस प्रधान दलके हाथमें होता है।
प्रश्न- राष्ट्र अनेक व्यक्ति एवं वर्गके एक संगठनक रूपमें यदि कोई सत्ता (entity ) रखता है, तो उसे उस सत्ताके संगठित एवं सामूहिक रूपमें हित-अहितकी चिंता भी होनी चाहिए । इस चिन्ताके अनुसार उसे संगठित रूपमें ही कार्य करनका अधिकार भी होना चाहिए। और इस प्रकार हर व्यक्तिक हित-अहितकी चिन्ता उसकी चिन्ता हो जानेसे क्या हर व्यक्तिके आचरणपर भी उसका अधिकार नहीं हो जाता?
उत्तर–प्रश्न जटिल हो गया है । वह जटिल होता ही जायगा और उसका अब उदाहरण देकर ही दर्शाना संभव हो सकता है। गृढ़ शब्दावली उसको
और गूढ़ बना देती है। __ अपने शरीर और व्यक्तित्वको लीजिए। आपका शरीर समझिए कि बाह्य राष्ट्र है । हाथ-पैर उसक अंगोपांग हैं । व्यक्तित्व उसी शरीरक भीतरकी अंतरंग सचाई है । हमारे ही कुछ ऐसे अंग और उपांग भी हैं जो दीखते नहीं हैं । जैसे हृदय है, मस्तिष्क है।
आपके प्रश्नका यह आशय हो जाता है कि क्या समूची देहको अधिकार नहीं है कि वह प्रत्येक अंग और उपागको अपने अधीन माने और क्या अंग और उपागका कर्त्तव्य नहीं है कि वह समूचे शरीरके प्रति अपनेको समर्पित समझे ?