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व्यक्ति और शासन-यंत्र
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शासन प्रथाके साथ जोड़ दें ? क्योंकि, उनकी लगन तो शासन-हीन शासनको स्थापित करनेपर लगी रहती है ।
प्रश्न--आप मानते हैं कि महान् पुरुप वर्तमानको दृष्टिमें लेकर किसी न किसी प्रकारके शासनको आवश्यक और अपरिहार्य समझते हैं । किन्तु, इस आवश्यक कार्यको करनेके लिए स्वयं तैयार न होकर, जव कि समाजका भी उनके पीछ आग्रह हो, क्या वे किसी दूसरेसे इस कार्यके किये जानेकी आशा करते हैं ? यह कहाँ तक उचित है? क्योंकि कार्य आवश्यक है, और उसका किया जाना भी।
उत्तर- क्यों, इसमें अनुचित क्या है ? हाथसे मैं हाथका काम चाहूँ, तो क्या उस हाथको तर्क करने का मौका है, कि, मस्तक तो यह काम नहीं करता, मैं भी यह नहीं करूँगा।
हाँ, यह सही है कि किसीकी मर्जी के खिलाफ अथवा कि उसके स्वभावके विरुद्ध महा-पुरुष किसीसे कोई काम नहीं लेगा । किसीको अपनी महा-पुरुषताका इतना भान है कि उसे शासन-कार्य में अन्तःकरणसे अरुचि हो, तो बेशक किसीके कहनेसे भी वह उस काममें क्यों पड़ने लगा ? लेकिन, महापुरुपता नकल करनेसे क्या मिल जायगी ? जो इस भ्रममें पड़े हैं, वे महापुरुष तो क्या बनेंगे, स्वयं जो कुछ है उससे भी हाथ धो बैठेंगे ।
प्रश्न-प्रश्न यह नहीं था कि महान् पुरुपकी इंकारीकी दूसरे लोग भी नकल करेंगे या नहीं। बल्कि, प्रश्न तो यह था कि जिस कामका किया जाना आवश्यक और अपरिहार्य है, फिर उसके करने में अनौचित्य कैसा? और तिसपर भी उस समाज-कार्यमें, जो कि कर्तव्य है, रुचिका क्या प्रश्न ? इसके भी अतिरिक्त जब हम किसीको महान् कहते हैं तो हमारा मतलब यह नहीं है कि वह केवल हाथ है, या मस्तक ही है । वल्कि, उसकी महत्तामें तो समाजोपयोगिताकी उतनी ही बड़ी क्षमता है। .
उत्तर-यहाँ आवश्यकसे अभिप्राय है होनहार । होनहार अपरिहार्य भी है। उचितसे आशय है, करने योग्य । होनहार सहने योग्य अवश्य है, पर वह उसी