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व्यक्ति और शासन-यंत्र
जब वह वाइसराय न रहेंगे, तब क्या कोई उन्हें पूछेगा भी ? शासनका लोग ही क्या महापुरुष हैं ? असलमें देखा जाय, तो उस वर्गमें महापुरुषांकी संख्या सबसे कम होती है। __ आपने कहा, 'समन्वित विवेक' । पर आजकी स्टेटका विवेक 'समन्वित विवेक' नहीं है, वह औसत विवेक है । जो विवेकका बाजार-भाव है, स्टेटका विवेक लगभग उसी तलपर रहता है । मैं नहीं जानता कि क्यों बाजार-भावको अंतिम भाव माना जाय । हमें जानना चाहिए कि बाज़ार में दर घटती-बढ़ती रहती है । जानना चाहिए कि वह क्या मूल तथ्य है जो उन मूल्योंमें परिवर्तन लाता है ? क्या वह तथ्य व्यक्तिकी अन्तःप्रेरणासे ही आरंभ नही होता ?
प्रश्न--जो व्यक्ति सबसे महान् है, वही अनिवार्यतः क्यों न स्टेटकी चोटीपर हो?
उत्तर-अनिवार्य यह है कि वह स्टेटकी चोटीपर न हो । जिसने जीवनको सत्यकी शोधके लिए ही समझा है, वह गवर्नर होना कैसे स्वीकार कर सकता है। गवर्नर जरूरी तौरपर वह प्राणी है जो शासनके लिए थोड़ा या बहुत बाहरी बलका भी प्रयोग करता है । जो जितना महान् है, बाह्य बलका प्रयोग उसके लिए उतना ही कम संभव है । उसका बल मात्र नैतिक बल है। गवर्नर केवल नैतिक बलसे नहीं, बल्कि सेना-बलसे, यानी गवर्नरीक बलसे, भी शासन करता है। इससे यह सदाके लिए असंभव है कि सच्चा पुरुष किसी राष्ट्रका शासन-प्राप्त अधिनायक हो । राजा बड़ा नहीं होता । बड़ा वह जिसका बड़प्पन बढ़ता ही है, गिरता कभी नहीं । मौतके बाद भी वह बढ़ता है । इतिहास उसे चमका ही सकता है, धुंधला नहीं कर सकता।
प्रश्न-क्या आपका यह कथन कैसी भी उन्नतसे उन्नत स्टेटपर लागू होना चाहिए?
उत्तर-उस स्टेटको छोड़कर जहाँ स्टेटका अनुशासन मानो धर्मानुशासन ही है । पर यह स्थिति इतिहासमें अत्यंत विरल है । यह होती है तो टिकती नहीं। मोहम्मद साहबकी खिलाफ़त ऐसी ही संस्था थी । बौद्ध आदर्शसे अनुप्राणित अशोक ऐसा ही हो चला था। पर शक्ति और धर्ममें अविरोध और ऐक्यका स्थापन इतना कठिन बना हुआ है कि उन दोनोंमें विरोध मानकर चला जाय तो विशेष हानि नहीं । धर्म वह है जहाँ व्याक्त अपनेको दासानुदास मानता है । और वह उसकी सच्ची दासानुदासता ही दुनियाके लिए बड़प्पन बन जाती है।