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शासन-तंत्र-विचार
(planet) है । अपने सौर-परिवारको ( Solar System को ) एक कहा जा सकता है। इससे आगे बढ़े तो स-चराचर ब्रह्मांड एक है । जीवनकी, आत्माकी, इकाईको इन सबमेंसे कहाँ किसमें एक जगह बाँधे ? इनमेंसे किसको इतना ऐकान्तिक सच कह दें कि दूसरा झूठ हो जाय ?
इसलिए, उस तरहका प्रश्न व्यर्थ है । यानी, उस प्रश्नकी सार्थकता प्रश्न ही बने रहने में है । उसका पक्का जवाब कभी कुछ नहीं बनेगा। ___ मैं और आप व्यक्ति हैं । इसलिए, पक्की तौरपर तो आत्माकी व्यक्ति गत इकाईकी बात ही हमारे भीतर बैठ सकती है ।
लेकिन, हममें ही कुछ ऐसी भी चेतना है जो व्यक्तिगत सीमाओंका अतिक्रम करके असीमका स्पर्श भी अनुभव करती है । उसी निरन्तर आत्म-साधनशील चेतनाके उत्तरोत्तर विकासके अनुरूप हम कहनेको बाध्य होते हैं कि. मुझसे बड़ा समाजका व्यक्तित्व है; अथवा कि मैं नहीं हूँ, राष्ट्र ही है। इस प्रकारका कथन असत्य नहीं है । पर, उसकी सत्यता तभी निर्धान्त है जब कि वे कथन स्वयं विकासशील हो । अर्थात्, मैं समाजका हूँ, यह कहना तभी सही होगा जब कि मुझे कल्पना हो कि समाज भी आगे जाकर किसी बृहत्तर मानवसमाजकी है । अगर वह कल्पना नहीं है, तो मेरा समाज-वाद मिथ्या दंभ भी हो सकता है। इसी प्रकार राष्ट्र-वाद अथवा स्टेट वाद कोरे मिथ्या घोष हो सकते हैं।
प्रश्न-व्यक्तिका व्यक्तित्व और समाजका व्यक्तित्व क्या दो अलग अलग तत्त्व नहीं हैं ?
उत्तर-शुद्ध सत्यकी दृष्टिसे नहीं हैं । लेकिन, सौ फीसदी सचाईको किसने, प्राप्त किया है ? इससे उनमें निरन्तर संघर्ष देखने में आता है।