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प्रस्तुत प्रश्न
समाज मेरे हाथमें आता ही नहीं । लाख कोशिश करूँ, उसका पल्ला भी मेरे छूने नहीं आता । तब यह जानना ही पड़ता है कि समाज मुझसे भिन्न नहीं है, मैं समाजसे भिन्न नहीं हूँ । चाहकर भी मैं कुछ करने के लिए समाजसे आरंभ नहीं कर सकता, मुझे अपनेसे ही आरंभ करना होगा । इसीलिए, अधिक से अधिक ज़ोर भी इस बातपर कम हो सकता है कि मैं अपने सुखको सदा समाजके हितमें देखूँ । समाज-सुधारको सदा ही स्वधर्म की परिभाषा में खोलकर देखने का प्रयास करना होगा । अन्यथा वर्तन करनेसे चक्कर ही कट सकता है, गति नहीं की जा सकती ।
आप देखिए न, हमारे सब व्यापार जिस इकाईको लेकर वह है व्यक्ति । उस व्यक्तिको चलानेवाला है मन । क्या आप बिना उस मनको ख्याल में लाये कोई परिवर्तन हो सकता है ? यह कहने की बिलकुल मंशा नहीं है कि मनकी कोई स्वतंत्र सत्ता है । मनकी बिलकुल भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । स्वतंत्र सत्ता तो त्रिकाल और त्रिलोकमें एक ही है जिसको सर्व-साधारणके साथ हम भी कह दें, ईश्वर । लेकिन, आदमीका वह मन उस आदमीकी क्रियाका आदि स्रोत है । इससे मैं फिर फिर कर यही कहूँगा कि आदमियोंके उन मनको सँभालने और चैतन्य बनाने से ही कुछ होगा । जो समाजशास्त्रके सहारे और अर्थ- शास्त्र के सहारे अपने मनकी मूर्च्छाको दूर हुआ पाते हैं और इसी भाँति उनमें प्रेरणा जागती है, तो वे अवश्य वैसा करें । लेकिन, समाज-शास्त्र अथवा अर्थ-शास्त्र में तब और उतनी ही सचाई मानी जायगी जब और जितने भी कि वे उस मानव के मानसको चेताते हैं । इस बातको माननेमें कर्मठसे कर्मठको क्यों बाधा होनी चाहिए, मैं नहीं देख पाता ।
प्रश्न – क्या देश जाति अथवा राष्ट्र मानवताकी जीवित इकाई है ? उन सत्ताओंमें क्या कोई आत्मा जैसी चीज ओत-प्रोत होकर जीती है !
संभव बनते हैं, समझते हैं कि
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उत्तर- -अगर वे जीवित हैं, तो जीवित हैं । इकाईके तौरपर उनकी कोई 1 अलग निजमें सत्ता नहीं है । आस्ट्रिया कल था, आज कहाँ है ? आत्मा एक है और सर्वव्यापी है । उसकी कोई बँधी इकाई नहीं है। मैं एक हूँ, मेरा परिवार एक है'। उसके बाद मेरा मोहल्ला, नगर, प्रान्त, देश ये सब भी एक एक हैं । उसके आगे यह भी सच है कि समूची धरती (Earth) एक