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प्रस्तुत प्रदन
और फिर, दुनिया उसके ऊपर अपना ऐश्वर्य भी लाद दे तो अचरज नहीं। लेकिन, जहाँ समझदारीकी बात-चीत करना लाज़मी हो, वहाँ हम ऐसी अनन्य घटनाओंको हिसाबमें ही क्यों लावें ?-क्यों, है न ?
प्रश्न-क्या आपका मतलब यह है कि महान् पुरुष स्टेटके दायित्वको अपने ऊपर लेना ही नहीं चाहते अथवा यह कि वह उन तक पहुँचता ही नहीं ?
उत्तर-अधिकारकी परिभाषामें वे सोच ही नहीं सकते और शासनका दायित्व अधिकारहीन होने पाता ही नहीं ।
प्रश्न-अधिकार-हीन शासन होनेसे आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-'अधिकार-हीन शासन'से अभिप्राय है पूरी तरह प्रेम और धर्मका शासन । किन्तु, जहाँ प्रेम है और धर्म है, वहाँ 'शासन' शब्द ओछा मालूम होता है । फिर भी, आखिर किन्हीं शब्दोंमें तो उसे कहना होगा। इसलिए, यह कहें कि शासनहीन शासन सर्वोत्तम है । सर्वोत्तम पुरुष शासनके सर्वोच्च प्रकारसे उतरकर हीन-शासन क्यों कर स्वीकार करे ? लेकिन, जब शासन ऐसे सर्वोच्च प्रकारका हुआ, तब आप ही सोचिए कि 'स्टेट' शब्द कितनी सार्थकताके साथ तब वहाँ टिका रह सकेगा? आप ही कहिए कि राम-राज्य भी कोई सचमुच राज्य जैसा आपको मालूम होता है ? राजनीति-शास्त्र ( Political Science) में जितनी विधियाँ (' Cracies ) वर्णित है उनमेंसे भला वह किस किस्मका है ? इसीसे उसकी चर्चा यहाँ क्या कीजिए ।
प्रश्न-क्या समाजकी कैसी भी अवस्थामें किसी प्रकारकी शासन-विधि ('cracy) को महान् पुरुष आवश्यक नहीं समझते हैं ? ___ उत्तर-यहाँ फिर दो शब्दोंमें भेद करना होगा । आवश्यक समझें भी, पर
अंतिम रूपमें उचित नहीं समझते । अर्थात् , उस शासनका संचालन वे अपने ऊपर नहीं ले सकते । हाँ, उसकी वर्तमान आवश्यकताको देखते हुए उसे धीर भावसे सहते तो हैं ही। वर्तमानकी दृष्टिसे अपरिहार्य उसे मानकर भी, भविष्यकी दृष्टिमें, उसे परिहार्य भी देखते हैं । अर्थात् , व्यावहारिक रूपमें उसे आशीर्वाद दे सकते हैं, पर तब भी उनकी आत्माके भीतर क्या बेचैनीकी आग समाप्त हो जाती है ? उनका सर्वस्व तो वह आग है। तब किस भाँति वे अपनेको किसी भी नामकी